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________________ : २५ : संगति १. संगति- फल १. दुज्जणसंसग्गीए पजहदि णियगं गुणं खु सुजणो वि । सीयलभावं उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण ।। (भग० आ० ३४४ ) दुर्जन की संगति से सज्जन भी निश्चय ही अपने गुण को वैसे ही छोड़ देता है जैसे जल अग्नि के संयोग से अपने शीतल स्वभाव को । २. सुजणो वि होइ लहुओ दुज्जणसंमेलणाए दोसेण । माला वि मोल्लगरुया होदि लहू मडयसंसिट्ठा ।। (भग० आ० ३४५) दुर्जन की संगति के दोष से सज्जन भी हल्का हो जाता है, जैसे मोल में भारी माला मुर्दे के संसर्ग से हल्की हो जाती है। ३. जहदि य णिययं दोसं पि दुज्जणो सुयणवइयरगुणेण । जह मेरुमल्लियंतो काओ णिययच्छविं जहदि । । (भग० आ० ३५०) दुर्जन सज्जन की संगति के गुण से अपने दोष छोड़ देता है, जैसे मेरु का आश्रय ग्रहण करता हुआ कौवा अपने रंग को छोड़ देता है। (भग० आ० ३५१) ४. कुसुमगंधमवि जहा देवयसेसत्ति कीरदे सीसे । तह सुयणमज्झवासी वि दुज्जणो पूइओ होइ ।। जिस प्रकार गंध-रहित फूल भी यह देवता की 'शेषा' है, सोचकर सिर पर चढ़ा लिया जाता है, उसी प्रकार सज्जनों के बीच रहनेवाला दुर्जन भी पवित्र हो जाता है। ५. तरुणस्स वि वरेग्गं पण्हाविज्जदि णरस्स बुढ्ढेहिं । पण्हाविज्जड पाइच्छीवि हु वच्छस्स फरुसेण । । (भग० आ० १०८३) जैसे जिसका दूध सूख गया है ऐसी भी गाय बछड़े के स्पर्श से प्रस्रावित हो जाती है, वैसे ही तरुण मनुष्य को ज्ञानवृद्धों की संगति से वैराग्य उत्पन्न हो जाता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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