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महावीर वाणी
उलूक जिसकी प्रशंसा करें और कौवे जिसकी निन्दा करें, वह निन्दा और वह प्रशंसा दोनों ही हवा की भाँति उड़ जाती है। ८. जं च बाला पसंसंति जं वा णिंदंति कोविदा। जिंदा वा सा पसंसा वा पप्पाति कुरुए जगे।। (इसि० ४ : १६)
अज्ञानी जिसकी प्रशंसा करता है और विद्वान् जिसकी निन्दा करता है, ऐसी निन्दा और प्रशंसा इस छली दुनिया में सर्वत्र उपलब्ध है। ६. वदतु जणे जं से इच्छियं किं णु कलेमि उदिण्णमप्पणो। भावित मम णत्थि एलिसे इति संखाए न संजलामहं ।।
(इसि० ४ : २२) कोई भी जो चाहे वह बोल सकता है। मैं अपने-आप को उद्विग्न क्यों करूँ ? मुझसे वह सन्तुष्ट नहीं है, यह समझकर मैं कुपित नहीं होता। १०. अक्खोवंजणमाताया सीलवं सुसमाहिते।
अप्पणा चेवमप्पाणं चोदितो वहते रहं।। (इसि० ४ : २३)
अष्ट प्रवचनमाता रूपी अक्ष से युक्त शीलवान सुसमाहित आत्मा का रथ आत्मा . के द्वारा प्रेरित होकर चलता है। ११. सीलक्खरहमारूढो णाण-दसण-सारही।
अप्पणा चेवमप्पाणं जदित्ता सुभमेहती।। (इसि० ४ : २४)
ज्ञान और दर्शन जिसके सारथी हैं, ऐसे शील नाम के रथ पर आरूढ़ होकर आत्मा अपने द्वारा अपने-आप को जीतता है और शुभ स्थिति को प्राप्त करता है।