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२४. स्व-श्लाघा : पर-निंदा
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३. उपेक्षा धर्म १. सुकडं दुक्कडं वा वि अप्पणो यावि जाणति।
ण य णं अण्णो विजाणाति सुक्कटं णेव टुक्कडं ।। (इसि० ४ : १२) __ अपने अच्छे या बुरे कर्मों को आत्मा स्वयं ही जानता है, किन्तु किसी के अच्छे या बुरे कर्मों को दूसरा व्यक्ति जान नहीं सकता। २. नरं कल्लाणकारि पि पावाकारिंति वाहिरा।
पावकारिं पि ते बूया सीलमंतो त्ति बाहिरा।। (इसि० ४ : १३)
बाहर से देखनेवाले कल्याणकारी आत्मा को भी पापकारी बतला देते हैं और दुराचारी को भी सदाचारी कह डालते हैं। ३. चोरं पिता पसंसंति मुणी वि गरिहिज्जती।
ण से एत्तावताऽचोरे ण से इत्तवताऽमुणी।। (इसि० ४ : १४)
स्थूल-दृष्टि जनतां कभी चोर की भी प्रशंसा कर डालती है और कभी-कभी मुनि उसके द्वारा गर्दा को प्राप्त होता है, किन्तु इतने मात्र से चोर अचोर नहीं हो जाता और न मुनि अमुनि। ४. णण्णस्स वयणा चोरे णण्णस्स वयणा मुणी।
अप्पं अप्पा वियाणाति जे वा उत्तणाणिणो।। (इसि० ४ : १५)
किसी के कथनमात्र से कोई चोर नहीं हो जाता और न किसी के कहने मात्र से कोई मुनि। या तो स्वयं मनुष्य ही अपने-आप को जानता है या सर्वज्ञ । ५. जइ मे परो पसंसाति असाधु साधु माणिया।
न मे सा तायए भासा अप्पाणं असमाहितं ।। (इसि० ४ : १६)
मैं असाधु हूँ और दूसरा साधु मानकर मेरी प्रशंसा करता है, पर मेरी आत्मा असंयत है तो प्रशंसा की भाषा मेरा रक्षण नहीं कर सकती।
६. जति मे परो विगरहाति साधु संतं णिरंगणं। ___ण मे सक्कोसए भासा अप्पाणं सुसमाहितं ।। (इसि० ४ : १७)
यदि मैं निर्ग्रन्थ हूँ और जनता मेरी अवमानना करती है तो निन्दा की वह भाषा मुझमें आक्रोश नहीं पैदा कर सकती है, क्योंकि मेरी आत्मा सुसमाधिस्थ है। ७. जं उलूका पसंसंति जं वा निंदति वायसा।
निंदा वा सा पसंसा वा वायुजालेव्व गच्छती।। (इसि० ४ : १८)