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________________ १७२ हा महावीर वाणी ०२. अच्चणं रयणं चेव वन्दणं पूयणं तहा। इड्ढीसक्कारसम्माणं मणसा वि न पत्थए।। (उ० ३५ : १८) अतः साधक अर्चना, रचना, वन्दना, पूजा, ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की मन से भी अभिलाषा न करे। २. पर-निन्दा १. न बाहिरं परिभवे अत्ताणं न समुक्कसे। सुयलामे न मज्जेज्जा जच्चा तवसि बुद्धिए।। (द० ८ : ३०) दूसरे का तिरस्कार न करे। अपनी बड़ाई न करे। श्रुत, लाभ, जाति, तपस्विता और बुद्धि का मद न करे। २. आयासवेरभयदुक्खसोयलगत्तणाणि य करेइ। परणिंदा वि हु पावा दोहग्गकरी सुयणवेसा।। (भग० आ० ३७०) परनिंदा पापजनक, दुर्भाग्य उत्पन्न करने वाली और सज्जनों को अप्रिय होती है। वह खेद, वैर, भय, दुःख, शोक और हल्केपन को उत्पन्न करती है। ३. किच्चा परस्स जिंदं जो अप्पाणं ठवेदुमिच्छेज्ज। सो इच्छदि आरोग्गं परम्मि कडुओसहे पीए ।। (भग० आ० ३७१) जो दूसरे की निंदा कर अपने को गुणवानों में स्थापित करने की इच्छा करता है, वह दूसरों को कड़वी औषधि पिलाकर स्वयं रोगरहित होना चाहता है। ४. दठूण अण्णादोसं सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ। रक्खइ य सयं दोसं व तयं जणपणभएण ।।(भग० आ० ३७२) सत्पुरुष दूसरे के दोष को देखकर स्वयं लज्जित हो जाता है। वह दूसरे की निंदा के भय से उसके दोष को अपने दोष की तरह छिपाता है। ५. अप्पो वि परस्स गुणो सप्पुरिसं पप्प बहुदरो होदि। उदए व तेल्लबिंदू किह सो जंपिहिदि परदोस ।। (भग० आ० ३७३) जल में तैल-बिंदु की तरह दूसरे का अल्प गुण भी सत्पुरुष को प्राप्त होकर बहुतर हो जाता है। ऐसा सत्पुरुष दूसरे के दोष को क्या कहेगा?
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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