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२४. स्व-श्लाघा : पर-निंदा
१७१ न कहता हुआ गुणहीन मनुष्य भी सज्जनों के बीच गुणवान् होता है। अपनी प्रशंसा अपने-आप नहीं करता वही गुण है। ६. वायाए जं कहणं गुणाण तं णासणं हवे तेसिं।
होदि हु चरिदेण गुणाणकहणमुभासणं तेसिं ।। (भग० आ० ३६५)
वचन से अपने गुणों का कहना उन गुणों का नाश करना है। अपने चरित्र से ही गुणों को कहना उनका उद्भाषण है। ७. वायाए अकहता सुजणो चरिदेहिं कहियगा होति। विकहिंतगा य सगुणे पुरिसा लोगम्मि उवरीव ।। (भग०आ० ३६६)
सज्जन अपने गणों को वाणी से नहीं, चरित्र से कहनेवाले होते हैं। अपने गुणों का स्वयं कथन न करनेवाले पुरुष लोक में ऊँचे उठ जाते हैं। ८. सगुणम्मि जणे सगुणो वि होइ लहुगो णरो विकत्थितो। सगुणो वा अकहिंतो वायाए होति अगुणेसु।।
(भग० आ० ३६७) गुणवान् व्यक्ति गुणवानों के बीच स्वयं ही अपने गुणों का बखान करने लगता. है तो वह वैसे ही हल्का हो जाता है जैसे गुणहीन लोगों में अपने वचनों से अपने गुणों को न कहनेवाला गुणवान व्यक्ति। ६. चरिएहिं कत्थमाणो सगुणं सगुणेसु सोभदे सगुणो।
वायाए वि कहितो अगुणो व जणम्मि अगुणम्मि ।। (भग० आ० ३६८)
अपने गुणों को कार्य से कहता हुआ पुरुष वैसे ही शोभा को प्राप्त होता है जैसे गुणहीन मनुष्य गुणहीन लोगों में वचनों से अपनी प्रशंसा करता हुआ। १०. जसं कित्ती सिलोगं च जा य वंदणपूयणा।
सबलोगंसि जे कामा तं विज्ज ! परिजाणियां।। (सू० १, ६ : २२)
हे विज्ञ ! यश, कीर्ति, श्लाघा, वंदन, पूजन तथा लोक में जो भी विषय-इच्छा है, उन्हें पतनकारी जानकर उनका विवर्जन कर। ११. पूयणट्ठी जसोकामी माणसम्माणकामए।
बहुं पसवई पावं मायासल्लं च कुव्वई।। (द० ५ (२) : ३५) __ जो मनुष्य पूजा का अर्थी, यश का इच्छुक और मान-सम्मान की कामना करनेवाला होता है, वह बहुत पाप को उत्पन्न करता है तथा माया-शल्य का सेवन करता है।