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________________ (: २४ :) स्व-श्लाघा : पर-निंदा १. आत्म-प्रशंसा १. अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा। अप्पाणं थोवंतो तणलहुहो होदि हु जणम्मि।। (भग० आ० ३५६) आत्म-प्रशंसा को हमेशा के लिए छोड़ो। अपने यश का अपने हाथों विनाश करने वाले मत बनो । अपनी प्रशंसा करता हुआ मनुष्य लोगों में तृण के समान हल्का होता है। २. संतो हि गुणा अकहिंतयस्स पुरिसस्स ण वि य णस्संति। अकहिंतस्स वि जह गहवइणो जगविस्सुदो तेजो।। (भग० आ० ३६१) - न कहने वाले पुरुष के गुण नष्ट नहीं हो जाते। जैसे अपने तेज का बखान न करने वाले सूर्य का तेज स्वयं ही विश्रुत होता है वैसे ही गुणी के गुण स्वयं प्रकाशित होते हैं। ३. ण य जायंति असंता गुणा विकत्यंतयस्स पुरिसस्स। धंति हु महिलायंतो व पंडवो पंडवो चेव।। (भग० आ० ३६२) गुणों का बखान करनेवाले पुरुष में जो गुण नहीं हैं वे उत्पन्न नहीं हो जाते। स्त्रियों की तरह आचरण करने पर भी नपुंसक नपुंसक ही रहता है। ४. संतं सगुणं कित्तिज्जंतं सुजणो जणम्मि सोदूणं। लज्जदि.किह पुण सयमेव अप्पगुणकित्तणं कुज्जा।। (भग० आ० ३६३) सुजन अपने गुणों की लोगों में प्रशंसा सुनकर लज्जित होता है, तब वह स्वयं ही अपने गुणों की प्रशंसा कैसे कर सकता है ? ५. अविकत्यंतो अगुणो वि होइ सगुणो व सुजणमज्झम्मि । सो चेव होदि हु गुणो जं अप्पणं ण थोएइ।। (भग० आ० ३६४)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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