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२३. त्रिशल्य
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यह भोग-सुख अन्तरहित दुःख-रूप फल को देता है, अध्रुव है, रक्षा करने में असमर्थ है, अतृप्तिकर है, बार-बार प्राप्त होनेवाला है, अतः यह जानकर उसकी कामना से विरत हो मोक्ष-सुख में मति करे। १४. अणिदाणो य मुणिवरो दंसणणाणचरणं विसोधेदि। तो सुद्धणाणचरणो तवसा कम्मक्खयं कुणइ ।।
(भग० आ० १२८३) निदान न करनेवाला संयमी पुरुष ज्ञान, दर्शन, चरण की विशुद्धि करता है। ऐसा शुद्ध ज्ञान और चरण से युक्त संत तप से कर्मों का क्षय करता है। १५. अवगणिय जो मुक्खसुई कुणइ णिआणं असारसुहहेउं । सो कायमणिकएणं वेरुल्लियमणिं पणासेइ।।
(भक्त० परि० १३८) . जो मोक्ष के शाश्वत-सुख की उपेक्षा कर असार सांसारिक सुख के लिए निदान करता है, वह मूर्ख काँच की मणि के लिए वैदूर्य मणि को खोता है।