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महावीर वाणी
८. जह वाणिया य पणियं लाभत्थं विक्किणंति लोभेण।
भोगाण पणिदभूदो सणिदाणो होइ तह धम्मो।। (भग० आ० १२४४)
जैसे वणिक् लोभवश लाभ के लिए अपना माल बेचता है, वैसे ही निदान करनेवाला भोगों के लिए धर्मरूपी माल बेचता है। ६. सपरिग्गहस्स अब्बंभचारिणो अविरदस्स से मणसा।
काएण सीवहणं होदि हु णडसमणरूवं व।। (भग० आ० १२४५)
जो निदान करता है वह परिग्रही है, वह अब्रह्मचारी है, क्योंकि वह मन से विरत नहीं है। वह केवल शरीर से ही शीलव्रत को धारण करनेवाला है। नट की तरह केवल उसका रूप ही साधक का है। १०. मधुमेव पिच्छदि जहा तडिओलंबो ण पिच्छदि पपादं। तह सणिदाणो भोगे पिच्छदि ण हु दीहसंसारं।।
(भग० आ० १२७४) जैसे कुएँ के किनारे पर स्थित मनुष्य मधु को ही देखता है, अपने गिरने की ओर ध्यान नहीं देता वैसे ही निदान करनेवाला व्यक्ति भोगों को ही देखता है, दीर्घ संसार (भव-भ्रमण) को नहीं देखता। ११. जालस्स जहा अंते रमंति मच्छा भयं अयाणंता। तह संगादिसु जीवा रमंति संसारमगणंता।।
(भग० आ० १२७५) जाल के भय को नहीं जाननेवाली मछलियों जैसे जाल के समीप खेलती-कूदती हैं वैसे ही संसारी जीव संसार-भय से रहित होकर परिग्रह में रमण करते हैं अर्थात् उसका निदान करते हैं। १२. जह सुत्तबद्धसउणो दूरंपि गदो पुणो व एदि तहिं । तह संसारमदीदि हु दूरंपि गदो णिदाणगदो।।
(भग० आ० १२७८) जैसे सूत्र से बँधा पक्षी दूर चले जाने पर भी पुनः अपने स्थान पर आ जाता है वैसे ही यह जीव भी निदान के प्रभाव से महाऋद्धि-सम्पन्न स्वर्गादि स्थान में जाकर पुनः कुत्सित संसार में भ्रमण करता है। १३. णच्चा दुरंतमद्धयमत्ताणमतिप्पयं अविस्सायं।
भोगसुहं तो तम्हा विरदो मोक्खे मदिं कुज्जा।। (भग० आ० १२८२)