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________________ २३. त्रिशल्य १६७ २. जो अप्पसुक्खहेतुं कुणइ णिदाणमविगणियपरमसुहं। सो कागणीए विक्केइ मणिं बहुकीडिसयमोल्लं ।।। (भग० आ० १२२१) जो अल्प वैषयिक सुख के लिए मोक्ष के परमसुख की अवगणना कर निदान करता है वह अनेक कोटि मुद्रा की मूल्य वाली मणि को काकिणि हेतु बेचता है। ३. सो भिंदइ लोहत्थं णावं भिंदइ मणिं च सुत्तत्थं । छारकदे गोसीरं डहदि णिदाणं खु जो कुणदि।। (भग० आ० १२२२) जो मनुष्य निदान करता है वह लोह की कील के लिए नौका का भेदन करता है, धागे के लिए मणि के टुकड़े करता है, भस्म के लिए गोशीर्ष चन्दन को जलाता है। ४. कोढी संतो लभ्रूण डहइ उच्छं रसायणं एसो। ___सो सामण्णं णासेइ भोगहेदूं णिदाणेण ।। (भग० आ० १२२३) जैसे कोई कुष्ठरोगी मनुष्य कुष्ठरोग नाशक ईख रूपी रसायन को पाकर उसको जलाता है, वैसे ही भोग के लिए निदान करनेवाला मनुष्य सर्व दुःख रूपी रोग का नाश करनेवाले संयम को जलाता है। ५. पुरिसत्तादिणिदाणं पि मोक्खकामा मुणी ण इच्छंति। जं पुरिसत्ताइमओ भावो भवमओ य संसारो।। (भग० आ० १४२४) मोक्षकामी पुरुष पुरुषत्व, बल, वीर्य आदि का भी निदान करना नहीं चाहता, क्योंकि पुरुषत्वादि पर्याय भी भव ही है और भव संसाररूप है। ६. भोगणिदाणेण य सामण्णं भोगत्थमेव होइ कदं। साहोलंबो जह अत्थिदो वि णेको वि भोगत्थं ।। (भग० आ० १२४२) भोगों का निदान करने से साधना भोगों के निमित्त ही हो जाती है। जैसे फल की इच्छा से शाखा को पकड़कर रखनेवाले यात्री की यात्रा फल के लिए ही हो जाती है। ७. आवडणत्थं जह ओसरणं मेसस्स होइ मेसादो। सणिदाणबंभचेरं अब्बभत्थं तहा होइ ।। (भग० आ० १२४३) जैसे एक बकरे से दूसरे बकरे का पीछे हटना आघात करने के लिए ही होता है, उसी तरह निदानयुक्त (फल की कामना करनेवाला) ब्रह्मचर्य मैथुन के लिए ही होता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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