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________________ १६६ महावीर वाणी अत्यन्त छिपाए हुए दोष कालांतर में लोग जान लेते हैं तब माया का प्रयोग करने से कौन-सा लाभ प्राप्त होता है ? ५. पडिभोगम्मि असंते णियडिसहस्सेहिं गृहमाणस्स। चंदग्गहोव्व दोसो खणेण सो पापडो होइ ।। (भग० आ० १४३२) भाग्य प्रबल न हो तो हजारों कपट से छिपाया हुआ भी दोष क्षणमात्र में ही प्रगट हो जाता है जैसे चन्द्रमा का राहू द्वारा ग्रसा जाना। ६. जणपायडो वि दोसो दोसोत्ति ण घेप्पए सभागस्स। जह समलत्ति ण घिप्पदि समलं पि जए तलायजलं।। (भग० आ० १४३३) जो भाग्यशाली होता है उसका दोष लोगों को मालूम हो जाने पर भी वे उसको दोष रूप में ग्रहण नहीं करते, जैसे तालाब का जल समल होने पर भी उसे समल नहीं मानते। (इस स्थिति में मायाचार की आवश्यकता नहीं)। ७. डंभसएहिं बहुगेहिं सुपउत्तेहिं अपडिभोगस्स। हत्थं ण एदि अत्यो अण्णादो सपडिभोगादो।। (भग० आ० १४३४) पुण्यहीन मनुष्य द्वारा अनेक दंभ-प्रयोग करने पर भी पुण्य के अभाव के कारण उसके हाथ धन नहीं आता। (ऐसी स्थिति में अर्थ के लिए भी माया करने की आवश्यकता नहीं)। ८. इह य परत्तए लोए दोसे बहुए य आवहइ माया। इदि अप्पण्णो गणित्ता परिहरिदव्वा हवइ माया। (भग० आ० १४३५) माया से इहलोक और परलोक में बहुत दोष उत्पन्न होते हैं। यह सोचकर माया का परित्याग करना चाहिए। ४. निदान (फल-कामना) शल्य १. संजमसिहरारूढो घोरतवपरक्कमो तिगुत्तो वि। पगरिज्ज जइ णिदाणं सोवि य वढ्ढेइ दीहसंसारं ।। (भग० आ० १२२०) जो संयमरूपी शिखर पर आरूढ़ है, घोर तपरूपी पराक्रम से युक्त है, तीन गुप्तियों . से गुप्त है, वह पुरुष भी यदि निदान (फल-कामना) करता है, तो दीर्घ संसार को बढ़ाता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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