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२३. त्रिशल्य
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६. मिच्छंत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदसणो होइ।
ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं पि रसं जहा जरिदो। (पंच० सं० १:६)
जो जीव मिथ्यात्व का सेवन करता है वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। उसे धर्म वैसे ही रुचिकर नहीं होता, जैसे ज्वरग्रस्त पुरुष को मधुर रस। १०. जो जहवायं न कुणइ मिच्छादिट्ठी तओ हु को अन्ना।
वड्ढइ य मिच्छत्तं परस्स संकं जणेमाणो।। (स० सु०७०) ___ जो तत्त्वों के अनुसार आचरण नहीं करता, उससे बड़ा मिथ्यादृष्टि अन्य कौन है, वह दूसरों में शंका उत्पन्न करता हुआ अपने मिथ्यात्व को बढ़ाता है।
३. माया शल्य १. जध कोडिसमिद्धो वि ससल्लो ण लभदि सरीरणिव्वाणं। मायासल्लेण तहा ण णिबुदिं तव समिद्धो वि।।
(भग० आ० १३८२) जैसे कोट्याधीश होने पर भी यदि शरीर में शल्य प्रविष्ट हो तो वह शारीरिक सुख का अनुभव नहीं कर सकता, वैसे ही तप से समृद्ध होने पर भी माया-रूपी शल्य से बींधा हुआ मनुष्य निवृत्ति-मोक्ष-सुख की प्राप्ति नहीं कर सकता। २. पावइ दोसं मायाए महल्लं लहु सगावराधेवि। सच्चाण सहस्साण वि माया एक्का वि णासेदि।।
(भग० आ० १३८४) माया के कारण अल्प अपराध करने पर भी मायावी जीव महान् दोष को प्राप्त होता है। एक माया सहस्रों सत्याचरणों का नाश करती है। ३. माया करेदि णीचागोदं इच्छी णवंसयं तिरियं।
मायादोसेण य भवसएसु डंभिज्जदे बहुसो।। (भग० आ० १३८६)
माया से नीच गोत्र की प्राप्ति होती है। माया से स्त्री, नपुंसक और तिर्यञ्च के रूप में जन्म होता है। माया-दोष के कारण जीव सैकड़ों जन्मों में बहुत बार वंचना का शिकार होता है। ४. अदिगूहिदा वि दोसा जणेण कालंतरेण णज्जति।
मायाए पउत्ताए को इत्थ गुणो हवदि लखो।। (भग० आ० १४३१)