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महावीर वाणी
२. मयतण्हियाओ उदयत्ति मया मण्णंति जह सतण्हयगा।
सब्भूदंति असब्भूदं तध मण्णंति मोहेण ।। (भग० आ० ७२६)
प्यास से जिनकी आँखें संतप्त हो रही हैं, ऐसे हरिनों को मरीचिका में जल का आभास होने लगता है, वैसे ही मोह के वश जीव असत् पदार्थ को सत् मानने लगता है। ३. मिच्छत्तमोहणादो धत्तूरयमोहणं वरं होदि।
वढ्ढेदि जम्ममरणं दंसणमोहो दु ण दु इदरं ।। (भग० आ० ७२७)
मिथ्यात्व से उत्पन्न मोह की अपेक्षा धतूरे से उत्पन्न मोह अच्छा होता है। मिथ्यात्व जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाता है, जबकि धतूरे से उत्पन्न मोह ऐसा नहीं करता। ४. जीवो अणादिकालं पयत्तमिच्छत्तभाविदो संतो।
ण रमिज्ज हु सम्मत्ते एत्थ पयत्तं सु कादब्वं ।। (भग० आ० ७२८)
यह जीव अनादिकाल से प्रवृत्त मिथ्यात्व की भावना से भावित होता हुआ सम्यक्त्व में रमण नहीं करता। इसलिए सम्यक्त्व में प्रयत्न करना चाहिए।
५. अग्गिविसकिण्हसप्पादियाणि दोसं ण तं करेज्जण्हू । ___ जं कुणदि महादोसं तिव्वं जीवस्स मिच्छत्तं ।। (भग० आ० ७२६)
अग्नि, विष और कृष्ण सर्प आदि उतना दोष नहीं करते जितना जीव का तीव्र मिथ्यात्व करता है।
६. अग्गिविसकिण्हसप्पादियाणि दोसं करंति एयभवे । __मिच्छत्तं पुण दोसं करेदि भयकोडिकोडीसु ।। (भग० आ० ७३०)
अग्नि, विष, नाग आदि एक ही भव में दोष करते हैं, किन्त मिथ्यात्व कोटि-कोटि जन्मों तक दोष उत्पन्न करता रहता है। ७. मिच्छत्तसल्लविद्धा तिव्वाओ वेदणाओ वेदंति। विसलित्तकंडविंद्धा जह पुरिसा णीप्पडीयारा।। (भग० आ० ७३१)
मिथ्यात्व-रूपी शल्य से बींधा हुआं प्राणी तीव्र वेदनाओं का अनुभव करता है। विष-लिप्त वाण से बींधे हुए मनुष्य की तरह उसकी वेदना का प्रतिकार नहीं हो पाता। ८. जो जेण पगारेणं भावो णियओ तमन्नहा जो तु।
मन्नति करेति वदति व विप्परियासो भवे एसो।। (स० सु० ५६)
जो भाव जिस प्रकार से नियत है, उसे अन्य रूप से मानता है, करता है अथवा कहता है। यह उसका विपर्यास-मिथ्यात्व है।