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२३. त्रिशल्य
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६. कल्ले परे व परदो काहं दंसणचरित्तसोधित्ति।
इय संकप्पमदीया गयं पि कालं याणंति।। (भग० आ० ५४१)
कल, परसों अथवा तरसों मैं दर्शन, ज्ञान और चारित्र की शुद्धि करूँगा-जो ऐसा संकल्प करते हैं, वे कितना आयुष्य बीत गया, यह नहीं जानते। ७. रागद्दोसाभिहदा ससल्लमरणं मरंति जे मूढा।
ते दुक्खसल्लबहुले भमंति संसारकांतारे।। (भग० आ० ५४२)
जो मूर्ख राग और द्वेष से पराजित होकर सशल्य मृत्यु को प्राप्त होते हैं वे दुःख-रूपी काँटों से भरे हुए संसार-रूपी जंगल में भ्रमण करते हैं। ८. तिविहं पि भावसल्लं समुद्धरित्ताण जो कुणदि कालं।
पव्वज्जादी सळ स होइ आराधओ मरणे।। (भग० आ० ५४३)
जो तीनों ही भाव-शल्यों को निकालकर विशुद्ध हो मुत्यु को प्राप्त होता है वह मरण के समय आराधक होता है। ६. णिस्सल्लस्सेव पुणो महव्वदाई हवंति सव्वाई। वदमुवहम्मदि तीहिं दुणिदाणमिच्छत्तमायाहिं।।
(भग० आ० १२१४) शल्य रहित पुरुष के ही सारे महाव्रत विशुद्ध होते हैं। जो शल्यों का आश्रय लेते हैं उनके व्रतों का निदान, मिथ्यात्व और माया से उपहनन होता है। १०. ससल्लो जइ वि कटुग्गं, घोरवीरं तवं चरे।
दिव्वं वाससहस्सं पि ततो वी तं तस्स निष्फलं ।। (महानि० १, १५)
शल्य सहित व्यक्ति चाहे देवताओं के हजार वर्ष तक भी घोर एवं उग्र तप करे, परन्तु उसका वह सारा प्रयत्न निष्फल जाता है।
२. मिथ्यात्व शल्य १. संसारमूलहेदु मिच्छन्तं सव्वधा विवज्जेहि।
बुद्धिं गुणण्णिदं पि हु मिच्छत्तं मोहिदं कुणदि।। (भग० आ० ७२४)
हे जीव ! संसार के मूल कारण मिथ्यात्व को सर्वदा दूर कर। मिथ्यात्व गुणान्वित बुद्धि को निश्चय ही मोहित कर देता है।