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( : २३ : त्रिशल्य
१. शल्य-दोष १. जइ कंटएण विद्धो सव्वंगे वेदणुधुदो होदि।
तमि दु समुट्ठिदे सो णिस्सल्लो णिज्बुदो होदि ।।(भग० आ० ५३६)
जिस प्रकार किसी के शरीर में कहीं काँटा चुभ जाने पर वह सारे शरीर में वेदना का अनुभव करता है, परन्तु जब शरीर से काँटा निकाल दिया जाता है तब वह निःशल्य होकर पीड़ा से निवृत्त होता है। २. एवमणुदधुददोसो माइल्लो तेण दुक्खिदो होइ।
सो चेव वंददोसो सुविसुद्धो णिबुदो होइ ।। (भग० आ० ५३७)
ऐसे ही जो मायावी पुरुष अपने दोषरूपी शल्य को दूर नहीं करता है, वह उससे दुःखी होता है। पर जो अपने दोषरूपी शल्य को निकाल देता है वह निःशल्य सुविशुद्ध होकर निवृत्त--पाप-मुक्त होता है। ३. मिच्छादसणसल्लं मायासल्लं णिदाणसल्लं च।
अहदा सल्लं दुविहं दवे भावे य बोधव् ।। (भग० आ० ५३८)
शल्य दो प्रकार का जानना चाहिए-द्रव्य और भाव। मिथ्यादर्शन शल्य, माया शल्य और निदान शल्य-ये तीन भावशल्य हैं। ४. तिविहे तु भावसल्लं दसणणाणे चरित्तजोगे य।
(भग० आ० ५३६) तीन प्रकार के भावशल्य दर्शन, ज्ञान और योग-इनमें उत्पन्न होते हैं। ५. एगमवि भावसल्लं अणुद्धरित्ताण जो कुणइ कालं।
लज्जाए गारवेण य ण सो हु आराधओ होदि ।।(भग० आ० ५४०)
जो लज्जा या अहंवश एक भी भावशल्य को निकाले बिना मृत्यु को प्राप्त होता है, वह आराधक नहीं होता।