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२२. परिग्रह-विरति १६. सव्वत्थ अप्पवसिओ णिस्संगो णिमओ य सव्वत्थ । होदि य णिप्परियम्मो णिप्पडिकम्मो य सव्वत्थ।।
(भग० आ० ११७७) निष्परिग्रही मनुष्य सर्वत्र स्वाधीन होता है। उसे कहीं भी भय नहीं होता। वह आरम्भ से निवृत्त होता है। वह सब जगह काम की चिन्ता से मुक्त होता है। १७. भारक्कंतो पुरिसो भारं ऊरुहिय णिबुदो होइ।
जह तह पयहिय गंथे णिस्संगो णिव्वुदो होइ।। (भग० आ० ११७८)
जैसे भार ढोनेवाला मनुष्य भार को उतारकर सुखी होता है, वैसे ही परिग्रह का त्याग कर अनासक्त रहनेवाला पुरुष सुखी होता है। १८. सव्वग्गंथविमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य।
जं पावइ पीयिसुहं ण चक्कवट्टी वि तं लहइ ।। (भग० आ० ११८२)
जो सर्व परिग्रह से मुक्त होता है, वह शीतीभूत हो जाता है। उसका अन्तःकरण आत्मानन्द से प्रसन्न होता है। इस तरह उसे जो सुख प्राप्त होता है, वह एक चक्रवर्ती को भी प्राप्त नहीं होता। १६. सव्वत्थ होइ लहुगो रूवं विस्सासियं हवदि तस्स। गुरुगो हि संगसत्तो संक्किज्जइ चावि सव्वत्थ।।
(भग० आ० ११७६) निष्परिग्रही मनुष्य सर्वत्र हल्का होता है। उसका रूप स्वयं विश्वास उत्पन्न करता है। परिग्रही सब जगह भारी होता है। वह सब जगह अविश्वसनीय होता है।