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________________ महावीर वाणी परिग्रह के लिए ही मनुष्य हिंसा करता है, मिथ्या वचन बोलता है, चोरी करता है, अपरिमित इच्छा रखता है और मैथुन का सेवन करता है। ६. सण्णागारवपेसुण्णकलहफरुसाणि णिठुरविवादा। संगणिमित्तं परिग्रह के निमित्त से ही संज्ञा, गौरव, पैशून्य, कलह, कठोरता, निष्ठुर विवाद, ईर्ष्या, असूया और शल्य उत्पन्न होते हैं। १०. संगा हु उदीरंति कसाए अग्गीव कठ्ठाणि । १६० ईसासूयासल्लाणि जायंति ।। (भग० आ० ११२६) (भग० आ० : ११७५) परिग्रह निश्चय से ही क्रोधादि कषायों को वैसे ही प्रदीप्त करते हैं, जैसे काष्ठ अग्नि को । ११. जह कुंडओ ण सक्को सोधेदुं तंदुलस्स सतुसस्स । तह जीवस्स ण सक्का मोहमलं संगसत्तस्स ।। (भग० आ० ११२०) जैसे तुष सहित तंदुल का अंतर्मल दूर नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार परिग्रहसहित जीव का मोहरूपी मल दूर नहीं किया जा सकता । १२. आसं तण्हं संगं छिंद ममत्तिं च मुच्छं च । (भग० आ० ११८१ ) सर्व परिग्रहों की आशा और तृष्णा का त्याग कर। संग, ममत्व और मूर्च्छा का त्याग कर । १३. अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो । (स० सा० २१२ ) इच्छा (ममत्व) का त्याग ही अपरिग्रह है । १४. रागो हवे मणुण्णे विसए दोसो य होइ अमणुण्णे । गंथच्चाएण पुणो रागद्दोसा हवे चत्ता ।। (भग० आ० ११७० ) इष्ट विषयों मे रागभाव उत्पन्न होता है और अनिष्ट विषयों में द्वेष उत्पन्न होता है । परिग्रह के त्याग से राग और द्वेष दोनों का परित्याग होता है। १५. गंथच्चाएण पुणो भावविसुद्दी वि दीविदा होइ । हु संगघडिदबुद्धी संगे जदिहुं कुणदि बुद्धी ।। (भग० आ० ११७४ ) परिग्रह के त्याग से भावविशुद्धि दीप्त होती है। परिग्रह में जिसका मन लुब्ध होता हे, वह परिग्रह के त्याग करने की इच्छा नहीं करता ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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