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२२. परिग्रह-विरति
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३. सोदूण किंचसदं सग्गंथो होइ उढिदो सहसा। सव्वतो पिच्छंतो परिमसदि पलादि मुज्झदि य।।
(भग० आ० ११५०) थोड़ा-सा भी शब्द सुनकर परिग्रही सहसा खड़ा हो जाता है, चारों ओर देखने लगता है, सोच में पड़ जाता है, भय से भागने लगता है अथवा मूर्छित होकर गिर पड़ता है। ४. संगणिमित्तं कुद्धो कलहं रोलं करिज्ज वेरं वा। पहणेज्ज व मारेज्ज व मारेजेज्ज व य हम्मेज्जा।।
(भग० आ० ११५३) परिग्रह के लिए क्रुद्ध हुआ मनुष्य कलह करता है, हल्ला मचाता है, वैर करता है, दूसरों को मारता है, पीटता है, उनके प्राण हरण करता है अथवा दूसरों के द्वारा वही मारा पीटा जाता है। ५. जदि वि कहंचि वि गंथा संचीएजण्ह तह वि से णत्थि।
तित्ती गंथेहिं सदा लोभो लाभेण वढ्ढदि खु।। (भग० आ० ११४२)
यदि किसी उपाय से परिग्रह का संग्रह भी हो जाता है, तो मनुष्य को उससे तृप्ति नहीं होती, क्योंकि लाभ से सदा लोभ ही बढ़ा करता है। ६. जध इंधणेहिं अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं। तह जीवस्स य तित्ती अत्थि तिलोगे वि लद्धम्मि।।
(भग० आ० ११४३) जैसे ईंधन से अग्नि की और हजारों नदियों से लवण-समुद्र की तृप्ति नहीं होती, वैसे ही तीनों लोकों की प्राप्ति हो जाने पर भी जीव की तृप्ति नहीं होती। ७. तित्तीए असंतीए हाहाभूदस्स घण्णचित्तस्स। किं तत्थ होज्ज सुक्खं सदा वि पंपाए गहिदस्स।।
(भग० आ० ११४५) जिसका चित्त लोभ से लंपट हो रहा है, जिसे संतोष नहीं है, जो सदा हायहाय करता रहता है, जो आशा से ग्रस्त है, उसे क्या कभी सुख हो सकता है ? ८. संगणिमित्तं मारेइ अलियवयणं च भणइ तेणिक्कं। भजदि अपरिमिदमिच्छं सेवदि मेहुणमिव य जीवो।।
(भग० आ० ११२५)