________________
१५८
महावीर वाणी धन और सहोदर-ये सब रक्षा करने में समर्थ नहीं होते, तथा जीवन अल्प हैयह जानकर परिग्रह से विरक्त होनेवाला कर्मों से छूट जाता है। १२. जो संचिऊण लच्छि धरणियले संठवेदि अइदूरे। ___सो पुरिसो तं लच्छिं पाहाण-समाणियं कुणदि।। (द्वा० अ० १४)
जो पुरुष लक्ष्मी का संचय कर उसे बहुत नीचे जमीन में गाड़ता है वह लक्ष्मी को पत्थर बना देता है। १३. लच्छी-संसत्त-मणो जो अप्पाणं धरेदि कट्टेण।
सो राइ-दाइयाणं कज्जं साहेदि मूढप्पा।। (द्वा० अ० १६)
जो पुरुष लक्ष्मी में मन से आसक्त होकर कष्ट से अपना गुजर करता है वह मूढ़ात्मा राजा तथा कुटुम्बियों का कार्य सिद्ध करता है। १४. जो वड्ढारदि लच्छिं बहु-विह-बुद्धीहिं णेय तिप्पेदि।
सव्वारंभ कुव्वदि रत्ति-दिणं तं पि चिंतेई ।। ण य भुंजदि वेलाए चिंतावत्थो ण सुयदि रयणीए। सो दासत्तं कुव्वदि किमोहिदो लच्छि तरुणीए।।
(द्वा० अ० १७, १८) जो पुरुष अनेक प्रकार की बुद्धि के द्वारा लक्ष्मी को बढ़ाता है, तृप्त नहीं होता, उसके लिए सर्व आरंभ करता है, रात-दिन उसी का चिंत्तन करता है, समय पर भोजन नहीं करता, चिंतित होता हुआ रात में भी नहीं सोता वह लक्ष्मी-रूपी युवती पर मोहित हो उसका दासत्व करता है।
२. परिग्रही बनाम निष्परिग्रही १. रागो लोभो मोहो सण्णाओ गारवाणि य उदिण्णा।
तो तइया घेत्तुं जे गंथे बुद्धी णरो कुणइ ।। (भग० आ० ११२१)
राग, लोभ, मोह, संज्ञा, गौरव आदि का उदय होता है, तब मनुष्य धन आदि परिग्रह के संग्रह की बुद्धि करता है। २. मादुपिदुपुत्तदारेसु वि पुरिसो ण उवयाइ वीसंभं। । ।
गंथणिमित्तं जग्गइ कंक्खंतो सवरत्तीए।। (भग० आ० ११४७)
परिग्रही मनुष्य माता, पिता, पुत्र और स्त्री का भी विश्वास नहीं करता। परिग्रह की रक्षा के लिए सारी रात ठुनकता हुआ जागता रहता है। .