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२२. परिग्रह-विरति
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आयु पल-पल क्षीण हो रही है, यह न समझकर मन्दबुद्धि मनुष्य दुस्साहसपूर्वक बिना विचारे ममता करता रहता है। धन में आसक्त मूढ़ मनुष्य अजर-अमर पुरुष की तरह रात-दिन धन के लिए परिताप सहन करता है। ६. हम्मदि मारिज्जदि वा बज्झदि रुंभदि य अणवराधे वि। आमिसहे, घण्णो खज्जदि पक्खीहिं जह पक्खी।।
(भग० आ० ११४६) परिग्रही मनुष्य बिना अपराध ही परिग्रह को चाहनेवाले दूसरे लोगों द्वारा पीटा और मारा जाता है तथा बन्द कर दिया जाता है। दूसरे परिग्रहाभिलाषी बनकर उसे दुःख देते हैं। जिसके मुंह में मांस है, ऐसा पक्षी निर्दोष होने पर भी क्या दूसरे मांसाभिलाषी पक्षियों द्वारा नहीं खाया जाता और नहीं लूटा जाता ?
७. थावरं जंगमं चेव धणं धण्णं उवक्खरं। । पच्चमाणस्स कम्मेहिं नालं दुक्खाउ मोयणे।। (उ० ६ : ५)
स्थावर और जंगम सम्पत्ति, धन-धान्य और घर-सामान आदि कर्मों से दुःख पाते हुए प्राणी को दुःख से मुक्त करने में समर्थ नहीं होते। ८. खेत्तं वत्थु हिरण्णं च पुत्तदारं च बंधवा। . चइत्ताणं इमं देहं गंतव्वमवसस्स मे।। (उ० १६ : १६)
मनुष्य को सोचना चाहिए-क्षेत्र (भूमि), घर, सोना-चाँदी, पुत्र, स्त्री, बान्धव तथा इस देह को भी छोड़कर मुझे एक दिन अवश्य जाना पड़ेगा। ६. चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि।
अण्णं वा अणुजाणाइ एवं दुक्खा ण मुच्चई।। (सू० १, १ (१) : २)
जब तक मनुष्य सचित्त या अचित्त (कामिनी-कांचन आदि) पदार्थों में थोड़ा भी परिग्रह (ममत्व, आसक्ति) रखता है या रखनेवाले का अनुमोदन करता है, तब तक वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता। १०. जस्सिं कुले समुप्पण्णे जेहिं वा संवसे णरे।
ममाती लुप्पती बाले अण्णमण्णेहिं मुच्छिए।। (सू० १, १ (१) : ४)
मूर्ख मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न होता है अथवा जिसके साथ निवास करता है उनमें ममत्व करता हुआ अन्यान्य वस्तुओं में मूञ्छित होता हुआ अन्त में बहुत पीड़ित होता है। ११. वित्तं सोयरिया चेव सव्वमेयं ण ताणइ।
संधाति जीवितं चेव कम्मणा उ तिउट्टइ।। (सू० १, १ (१) : ५)