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________________ (: २२ : परिग्रह-विरति १. धन का अभिशाप १. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते इमंमि लोए अदुवा परत्था। दीव-प्पणठे व अणंत-मोहे नेयाउयं दद्रुमदठुमेव ।। (उ० ४ : ५) प्रमत्त मनुष्य धन द्वारा न तो इस लोक में अपनी रक्षा कर सकता है और न परलोक में। हाथ मे दीपक होने पर भी जैसे उसके बुझ जाने पर सामने का मार्ग दिखाई नहीं देता, उसी तरह से धन के अनन्त मोह में फँसा हुआ मूढ़ मनुष्य पार पहुँचानेवाले मार्ग को देखता हुआ भी नहीं देख सकता। २. जे पावकम्मेहि धणं मणूसा समाययंता अमइं गहाय। पहाय ते पास पयट्ठिए नरे' वेराणुबद्धा नरयं उति।। (उ० ४ : २) जो मनुष्य धन को अमृत मानकर अनेक पाप-कृत्यों द्वारा उसे कमाते हैं, उन्हें देख । वे अनेक जीवों से वैर-विरोध बाँधकर सारी धन-सम्पत्ति यहीं छोड़ नरकवास प्राप्त करते हैं। ३. परिवयंते अणियत्तकामे अहो य राओ परितप्पमाणे। अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे पप्पोति मच्चु पुरिसे जरं च।। (उ० १४ : १४) धन के लिए चक्कर लगानेवाला, काम-लालसा से अनिवृत्त, दूसरों के लिए रातदिन परिताप करता हुआ प्रमत्त मनुष्य धन की कामना और खोज करते-करते ही जरा और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। ४. वियाणिया दुक्खविवद्धणं धणं ममत्तबंधं च महभयावहं। सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं धारेह निव्वाणगुणावहं महं ।। (उ० १६ : ६८) धन को दुःख बढ़ानेवाला, ममत्व-बन्धन का कारण और महा भयावह जानकर उस सुखावह, अनुपम महान् धर्म-धुरा को धारण करो, जो निर्वाण के हेतुभूत गुणों को प्राप्त करानेवाली है। ५. आउक्खयं चेव अबुज्झमाणे ममाइ से साहसकारि मंदे। अहो य राओ परितप्पमाणे अट्टेसुमूढे अजरामरे व्व ।। (सू० १, १० : १८
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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