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२१. अब्रह्मचर्य-विरति
१५५ १६. पोग्गलाण परिणामं तेसिं नच्चा जहा तहा।
विणीयतण्हो विहरे सीईभूएण अप्पणा।। (द० ८ : ५६)
शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-इन पुद्गल-परिणामों को यथातथ्य जानकर ब्रह्मचारी तृष्णारहित हो उपशान्त आत्मापूर्वक विहार करे। १७. घिदभरिदघडसरित्थो पुरिसो इत्थी वलंतअग्गिसमा।
तो महिलेयं दुक्का पट्ठा पुरिसा सिवं गया इदरे ।। (मू० ६६१)
पुरुष घी से भरे हुए घड़े के समान है और स्त्री जलती हुई अग्नि के समान। जिन पुरुषों ने स्त्री का संसर्ग प्राप्त किया वे नाश को प्राप्त हुए, और जो उससे बचे वे मोक्ष को गये। १८. अह सेऽणुतप्पई पच्छा भोच्चा पायसं व विसमिस्सं । एवं विवागमायाए संवासो ण कप्पई दविए।।
(सू० १, ४ (१) : १०) विषमिश्रित खीर का भोजन करनेवाले मनुष्य की तरह स्त्रियों के सहवास में रहने वाले ब्रह्मचारी को पीछे विशेष अनुताप पड़ता है। इसलिए पहले से ही विवेक रखकर मुमुक्षु स्त्रियों के साथ सहवास न करे। १६. कुव्वंति संथवं ताहिं पब्भट्ठा समाहिजोगेहिं। तम्हा उ वज्जए इत्थी विसलित्तं व कंटगं णच्चा।।
(सू० १, ४ (१) : १६, ११) जो स्त्रियों के साथ परिचय करता है, वह समाधि-योग से भ्रष्ट हो जाता है। अतः स्त्रियों को विष-लिप्त कंटक के समान जानकर ब्रह्मचारी उनके संसर्ग का वर्जन करे। २०. मा पेह पुरा पणामए अभिकंखे उवहिं धणित्तए। जे दूवणया ते हि णो णया ते जाणंति समाहिमाहियं ।।
(सू० १, २ (२) : २७) दीन बनानेवाले पूर्व के भोगे हुए विषय-भोगों का स्मरण मत कर, न उनकी कामना कर। सारी उपाधियों-दुष्प्रवृत्तियों को दूर कर । मन को दुष्ट बनानेवाले विषयों के सामने जो नतमस्तक नहीं होता वह जिन-कथित समाधि को जानता है। २१. दुज्जए कामभोगे य निच्चसो परिवज्जए।
संकट्ठाणाणि सव्वाणि वज्जेज्जा पणिहाणवं ।। (उ० १६ : १४)
एकाग्र मनवाला ब्रह्मचारी दुर्जय कामभोगों का सदा वर्जन करे तथा ब्रह्मचर्य के . लिए जो विघ्न के स्थान हों, उन सबसे दूर रहे।