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________________ १५४ महावीर वाणी (१०) कामभोग-शब्दादि विषयों-में आसक्ति (ये सब बातें प्रिय होती है और उनका त्याग बड़ा कठिन होता है परन्तु) आत्मगवेषी पुरुष के लिए सब तालपुट विष की तरह है। १०. जहा कुक्कुडपोयस्स निच्चं कुललओ भयं। एवं खु बंभयारिस्स इत्थीविग्गहओ भयं ।। (द० ८ : ५३) जैसे मुर्गी के बच्चे को बिल्ली से हमेशा (प्राण-नाश का) भय (बना रहता) है, उसी तरह ब्रह्मचारी को स्त्री-शरीर से (शील-भंग का) भय (बना रहता) है। ११. चित्तभित्तिं न निज्झाए नारिं वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दह्णं दिहिँ पडिसमाहरे।। (द० ८ : ५४) __ आत्मगवेषी पुरुष चित्र-भित्ति (स्त्रियों के चित्रों से चित्रित दीवार) या सुअलंकृत नारी को गिद्ध-दृष्टि से न देखे। ऐसे चित्र अथवा स्त्री को देखकर वह अपनी दृष्टि उसी तरह प्रतिसमाहृत करे-खींच ले-जैसे भास्कर (की किरणों) को देखकर मनुष्य आँखों को खींच लेता है। १२. वीहेदव्वं णिच्चं कट्ठत्थस्सवि तहित्थिरुवस्स। हवदि य चित्तक्खोभो पच्चयभावेण जीवस्स ।। (मू० ६६०) काठ से बने हुए स्त्रीरूप से भी सदा डरना चाहिए क्योंकि कारणवश उससे भी जीव का मन चलायमान हो जाता है। १३. अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्लवियपेहियं। इत्थीणं तं न निज्झाए कामरागविवड्ढणं ।। (द० ८ : ५७) स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग, संस्थान, उनकी मनोहर बोली और चक्षु-विन्यास (कटाक्ष)-इन सब पर ब्रह्मचारी ध्यान न लगावे। ये बातें कामराग की वृद्धि करनेवाली हैं। १४. मायाए वहिणीए धूआए मूइय वुड्ढ इत्थीए। बीहेदव्वं णिच्चं इत्थीरूवं णिरावेक्खं ।। (मू० ६६२) माता, बहन, पुत्री, गूंगी, बूढ़ी स्त्री से भी सदा डरते रहना चाहिए। निरपेक्ष भाव से स्त्री के रूप का निरीक्षण नहीं करना चाहिए। १५. विसएसु मणुन्नेसु पेमं नाभिनिवेसए। अणिच्चं तेसिं विन्नाय परिणामं पोग्गलाण य।। (द०८ : ५८) शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-इन पुद्गल-परिणामों को अनित्य जानकर ब्रह्मचारी मनोज्ञ विषयों में राग-भाव न करे।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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