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२१. अब्रह्मचर्य - विरति
दसविहमव्वंभमिणं
संसारमहादुहाणमावाहं । परिहरइ जो महप्पा सो दढबंभव्वदो होदि । । (मू० ६६६-६८)
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बहुत भोजन करना, शरीर - श्रृंगार, गन्धमाल्य का धारण, गीत-वादित्र का सुनना, शयन - शृंगारपूर्ण घर - चित्रशाला की खोज, स्त्री - संसर्ग, भोग्य वस्तुओं का संग्रह, भोगे हुए भोगों का स्मरण, इन्द्रियों के विषय में प्रेम और इष्ट-पुष्ट रस का सेवन - इस तरह दस प्रकार का अब्रह्मचर्य है, जो संसार के दुःखों का उत्पत्ति स्थान है। जो महात्मा इनका त्याग करता है, वह दृढ़ ब्रह्मचर्य व्रत का धारी होता है।
५. एवं विसग्गिभूदं अब्बंभं दसविहंपि णादव्वं । आवादे मधुरमिव होदि विवागे य कडुयदरं । ।
(भग० आ० ८८१)
यह दस प्रकार का अब्रह्म विष और अग्नि के समान है। यह अब्रह्म आदि में बड़ा मधुर होता है पर विपाक के समय कड़वा होता है।
६. संकप्पंडयजादेण रागदोसचलजमलजीहेण । विसयबिलवासिणा रदिमुहेण चिंतादिरोसेण ।।
(भग० आ० ८६०)
यह कामरूपी सर्प संकल्परूपी अंडे से उत्पन्न होता है। राग और द्वेष इसकी दो जिहाएँ हैं। यह विषयरूपी बिल में रहता है। विषयासक्ति ही इसका मुख है और यह चिन्तारूपी रोष से युक्त है।
७. जावइया किर दोसा इहपरलोए दुहावहा होंति ।
सव्वे वि आवहदि ते मेहुणसण्णा मणुस्सस्स ।। (भग० आ० ८८३)
जितने भी दोष इहलोक और परलोक में दुःखों को उत्पन्न करनेवाले हैं, वे सब मनुष्य की अब्रह्मचर्य की इच्छा से ही पैदा होते हैं।
८. आलओ थीजणाइण्णो
थीकहा य मणोरमा । संथवो चेव नारीणं तासिं इंदियदरिसणं ।। कूइयं रुइयं गीयं हसियं भुत्तासियाणि य । पणीयं भत्तपाणं च अइमायं पाणभोयणं । । गतभूसणमिट्ठे च कामभोगा य दुज्जया । नरस्सऽत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा । । (उ० १६ : ११-१३)
(१) स्त्रियों से आकीर्ण निवास, (२) मनोहर स्त्री-कथा, (३) स्त्रियों से संसर्ग और परिचय, (४) उनकी इन्द्रियों का दर्शन, (५) उनके कूजन, रोदन, गीत और हास्य का सुनना, (६) भुक्त भोग और उनके साथ एकासन का स्मरण, (७) स्निग्ध रसदार भक्त - पान, (८) अति मात्रा में खान-पान, (६) शरीर - श्रृंगार की इच्छा तथा