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________________ १५२ महावीर वाणी जिन पुरुषों ने स्त्री-संसर्ग और काम-शृंगार को छोड़ दिया है, वे समस्त विघ्नों को जीतकर उत्तम समाधि में निवास करते हैं। ५. एए ओघं तरिस्संति समुदं व ववहारिणो। जत्थ पाणा विसण्णासी किच्चंती सयकम्मुणा ।। (सू० १, ३ (४) : १८) ऐसे पुरुष इस संसार-सागर को, जिसमें दूसरे जीव डूब गए हैं और अपने-अपने कर्मों से दुःख पाते हैं, उसी तरह तिर जाते हैं जिस तरह वणिक् समुद्र को। ७. देवदाणवगंधवा जक्खरक्खसकिन्नरा। बंभयारिं नमसंति दुक्करं जे करंति तं।। (उ० १६ : १६) देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर-ये सभी उस ब्रह्मचारी को नमस्कार करते हैं, जो दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है। २. ब्रह्मचर्य-साधना-सूत्र १. जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो। तं जाण बंभचेरं विमुक्कपरदेहतित्तिस्स।। (भग० आ० ८७८) आत्मा ही ब्रह्म है। आत्मा में ही चर्या करना ब्रह्मचर्य है। जो साधक परदेह से विमुक्त होकर ब्रह्म में चर्या करता है वही सच्चा ब्रह्मचारी है। २. मण बंभचेर वचि बंभचेर तह काय बंभचेरं च। अहवा हु बंभचेरं दवं भावं ति दुवियप्पं ।। (मू० ६६४) मन में ब्रह्मचर्य, वचन में ब्रह्मचर्य और काय में ब्रह्मचर्य-इस तरह ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का है अथवा द्रव्य-ब्रह्मचर्य और भाव-ब्रह्मचर्य-इस प्रकार दो तरह का है। ३. भावविरदो दु विरदो ण दवविरदस्स सुग्गई होई। विसयवणरमणलोलो धरियव्वो तेण मणहत्थी।। (मू० ६६५) जो भावतः (अंतरंग से) विरत है वही वास्तव में विरत है। जो केवल द्रव्यतः (बाहर से) विरत है उसकी सुगति नहीं होती। इसलिए मनरूपी हाथी को-जो विषय-वन में रमण करता है-वश में करना चाहिए। ४. पढसं विउलाहारं बिदियं कायसोहणं। तदियं गंधमल्लाइं चउत्थं गीयवाइयं ।। तह सयणसोधणंपि य इत्थिसंसग्गंपि अत्थसंगहणं। पुव्वरदिसरणमिंदियविसयरदी पणीदरससेवा।।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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