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________________ ( : २१ : अब्रह्मचर्य-विरति १. ब्रह्मचारी और उपलब्धियाँ १. वाऊ व जालमच्चेइ पिया लोगसि इथिओ। इथिओ जे ण सेवंति आदिमोक्खा हु ते जणा।। . (सू० १, १५ : ८, ६) जैसे वायु अग्नि की ज्वाला को पार कर जाती है, वैसे ही पराक्रमशाली पुरुष इस लोक में प्रिय स्त्रियों के मोह को उल्लंघन कर जाते हैं। . जो पुरुष स्त्रियों का सेवन नहीं करते वे मोक्ष पहुँचने में सबसे अग्रसर होते हैं। २. जे विण्णवणाहिऽजोसिया संतिण्णेहि समं वियाहिया। तम्हा उड्ढं ति पासहा अदक्खू कामाई रोगवं।। (सू० १, २ (३) : २) काम को रोग-रूप समझकर जो स्त्रियों से अभिभूत नहीं है, उन्हें मुक्त पुरुषों के समान कहा है। इसलिए मोक्ष को देखो और कामों को रोग-रूप समझो। ३. णीवारे व ण लीएज्जा छिण्णसोते अणाइले। अणाइले सदा दंते संधि पत्ते अणेलिस।। (सू० १, १५ : १२) स्त्री-प्रसंग सूअर को फँसानेवाले चावल के कण की तरह है। विषय और इन्द्रियों को जीतकर जो छिन्नस्रोत हो गया है तथा जो राग-द्वेष रहित है वह स्त्री-प्रसंग में न फँसे। जो विषय-भोगों में अनाकुल और सदा इन्द्रियों को वश में रखनेवाला पुरुष है वह अनुपम भाव-सन्धि (कर्म क्षय करने की मानसिक दशा) को प्राप्त करता है। ४. जहा णई वेयरणी दुत्तरा इह सम्मता। एवं लोगंसि णारीओ दुत्तरा अमईमया।। (सू० १,३ (४) : १६) जिस तरह नदियों में वैतरणी नदी दुस्तर मानी जाती है, उसी तरह इस लोक में अविवेकी पुरुष के लिए स्त्रियों का मोह जीतना कठिन है। ५. जेहिं णारीण संजोगा पूयणा पिट्ठओ कया। सबमेयं णिराकिच्चा ते ठिया सुसमाहिए।। (सू० १, ३ (४) : १७)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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