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महावीर वाणी
धन से मनुष्य भार्या, पुत्र, सम्बन्धी आदि के साथ सुखपूर्वक जीता है। धन के हरण से उसकी भार्या, पुत्र आदि के जीवन का हरण होता है।
७. चोरस्स णत्थि हियए दया च लज्जा दमो व विस्सासो।
चोरस्स अत्थहेतुं णत्थि य कादव्वयं किं पि।। (भग० आ० ८६२)
चोर के मन में न दया होती है और न लज्जा, न संयम होता है और न विश्वास। धन को पाने के लिए चोर के लिए कुछ अकार्य नहीं है।
८. अण्णं अवरज्झंतस्स दिति णियये घरम्मि आवासं । ___ माया वि य ओगासं ण देइ चोरिक्क सीलस्स ।। (भग० आ० ८६४)
अन्य अपराध करनेवालों को लोक अपने घर में आश्रय देता है, परन्तु लोक तो क्या चोरी करनेवाले मनुष्य को उसकी माता भी आश्रय नहीं देती। ६. उंदरकंदपि सदं सुच्चा परिवेवमाणसव्वंगो।
सहसा समुच्छिदभओ उविग्गो धावदि खलंतो।। (भग० आ० ८६६)
चूहे का शब्द सुनकर भी चोर के सारे अंग भय से थर-थर काँपने लगते हैं और वह डरकर भागने लगता है और गिर पड़ता है। १०. धत्तिं पि संजमंतो घेत्तूण किलिंदमेत्तमविदिण्णं ।
होदि हु तणं व लहुओ अप्पच्चइओ य चोरी व्व ।। (भग० आ० ८७०) ___ संयम का पालन करता हुआ मनुष्य न दिया हुआ तृणमात्र भी ग्रहण कर चोर के समान अविश्वासी बन जाता है और तिनके के समान हल्का हो जाता है। ११. चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं।
दंतसोहणमेत्तं पि ओग्गहंसि अजाइया ।। तं अप्पणा न गेण्हंति नो वि गेण्हावए परं। अन्नं वा गेण्हमाणं पिनाणुजाणति संजया।। (द०६ : १३-१४)
अतः संयमी पुरुष सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत, दाँता कुरेदने का तिनका तक भी उसके स्वामी की आज्ञा बिना स्वयं ग्रहण नहीं करता, न दूसरे से ग्रहण करवाता है और न ग्रहण करनेवाले को भला समझता है। १३. आयाणं नरयं दिस्स नायएज्ज तणामवि।' (उ० ६-७)
बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण में नरक देखकर तृण-मात्र भी बिना दिया हुआ ग्रहण नहीं करना चाहिए।
१. भग० आ० ८५३।