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अदत्तादान-विरति
१. रूवे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि अतुट्ठदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ।। ( उ० ३२ : २६)
रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श और भाव- इन विषयों में अतृप्त और उनके परिग्रहण में गाढ़ आसक्तिवाला मनुष्य तुष्टि (संतोष) नहीं पाता और अतुष्टि दोष से दुखी और लोभ से कलुषित वह आत्मा दूसरे की न दी हुई इष्ट वस्तु को ग्रहण करता है। २. जह मारुवो पवट्ठइ खणेण वित्थरइ अब्भयं च जहा ।
जीवस्स तहा लोभो मंदो वि खणेण वित्थरइ ।। (भग० आ० ८५६)
जैसे वायु क्षण-भर में बढ़कर विस्तीर्ण हो जाती है, बादल भी क्षण-भर में बढ़कर सारे आकाश को व्याप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार पहले जीव का लोभ मंद होने पर भी क्षण-भर में विस्तीर्ण हो जाता है ।
३. लोभे य वढि पुण कज्जाकज्जं णरो ण चिंतेदि ।
तो अप्पणो वि मरणं अगणितो चोरियं कुणइ ।। (भग० आ० ८५७) लोभ के बढ़ जाने पर मनुष्य कार्याकार्य का विचार नहीं करता और अपने मरण की भी परवाह न करता हुआ चोरी करता है ।
४. सव्वो उवहिदबुद्धी पुरिसो अत्थे हिदे य सव्वो वि ।
सत्तिप्पहारविद्धो व होदि हियमंमि अदिदुहिदो ।। (भग० आ० ८५८)
सभी लोगों की बुद्धि धन में आसक्त रहती है, उनका हृदय धन में रहता है। धन का हरण होने पर मनुष्य शक्ति नामक शस्त्र के प्रहार से विद्ध होने के समान हृदय में अत्यन्त दुःखित होता है ।
५. अत्थम्मि हिदे पुरिसो उम्मत्तो विगयचेयणो होदि ।
मरदि व हक्कारकिदो अत्थो जीवं खु पुरिसस्स ।। (भग० आ० ८५६)
दूसरे के द्वारा धन के हरण किये जाने पर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है। उसकी चेतना लुप्त हो जाती है। 'मेरा धन', 'मेरा धन' करता हुआ वह मर जाता है, क्योंकि अर्थ मनुष्य का जीवन होता है।
६. अत्थे संतम्मि सुहं जीवदि सकलत्तपुत्तसंबंधी ।
अत्थं हरमाणेण य हिदं हवदि जीविदं तेसिं । । (भग० भा० ८६१)