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१६. मृषावाद-विरति
जिस वचन से प्राणातिपात आदि दोष उत्पन्न हों वह सावद्य वचन है। जैसे बिना विचारे चोर को चोर कहना ।
१५. परुसं कडुयं वयणं वेरं कलहं च जं भयं कुणइ । उत्तासणं च हीलणमप्पियवयणं
समासेण ।। (भग० आ० ८३२)
पुरुष वचन, कटु वचन, वैर, कलह, भय को उत्पन्न करनेवाला वचन, त्रास उत्पन्न करनेवाला वचन, अवज्ञा करनेवाला वचन संक्षेप में अप्रिय वचन है ।
१६. हासभयलोहकोहप्पदोसादीहिं तु मे पयत्तेण ।
एवं असंतवयणं परिहरिदव्वं
विसेसेण । ।
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(भग० आ० ८३३)
उपर्युक्त असत्य तथा हास्य, भय, लोभ, क्रोध, द्वेष इत्यादि कारणों से जो असत्य भाषण किया जाता है उसका तू प्रयत्नपूर्वक विशेष रूप से त्याग कर।
२. सत्यवादी : असत्यवादी
१. माया व होइ विस्सस्सणिज्ज पुज्जो गुरुव्व लोगस्स । पुरिसो हु सच्चवादी होदि हु सणियल्लओव्व पिओ । ।
( भग० आ० ८४०)
सत्यवादी पुरुष लोगों के लिए माता के समान विश्वसनीय, गुरु के समान पूजनीय और निकटतम बंधु के समान प्रिय होता है ।
२. सच्चम्मि तवो सच्चम्मि संजमो तह वसे सया वि गुणा ।
सच्चं णिबंधणं हि य गुणाणमुदधीव मच्छाणं ।। (भग० आ० ८४२)
सत्य ही तप है। सत्य में ही संयम और शेष सभी गुण समाहित हैं। जैसे समुद्र मछलियों का आश्रय स्थल होता है वैसे ही सत्य सब गुणों का आश्रय स्थल है। ३. सच्चेण जगे होदि पमाणं अण्णो गुणो जदि वि से णत्थि ।
अदिसंजदो य मोसेण होदि पुरिसेसु तणलहुओ | | ( भग० आ० ८४३)
दूसरे गुण न होने पर भी सत्यवादी पुरुष सत्य के बल से ही जगत् में प्रमाणभूत होता है। संयमी पुरुष भी यदि असत्यवादी हो तो वह तिनके के समान तुच्छ होता है।
४. होदु सिहंडी व जडी मुंडो वा णग्गओ व चीवरधरो । जदि भणदि अलियवयणं विलंबणा तस्स सा सव्वा ।।
(भग० आ० ८४४)