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मृषावाद-विरति
१. मृषावाद १. मुसावाओ य लोगम्मि सव्वसाहूहिं गरहिओ।
अविस्सासो य भूयाणं तम्हा मोसं विवज्जए।। (द० ६ : १२)
इस समूचे लोक में मृषावाद सब साधुओं द्वारा गर्हित है और वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है। अतः मुमुक्षु असत्य न बोले। २. वितहं पि तहामुत्तिं जं गिरं भासए नरो।
तम्हा सो पुट्ठो पावेणं किं पुण जो मुसं वए।। (द० ७ : ५) __ जो पुरुष बाह्य आधार से सत्य बोलने पर भी वास्तव में असत्य बोल जाता है उससे भी वह पाप से स्पृष्ट होता है तो फिर उनका क्या कहना जो साक्षात् मृषा (झूठ) बोलता है। ३. अप्पणट्ठा परट्ठा वा कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूया नो वि अन्नं वयावए।। (द० ६ : ११)
मुमुक्षु अपने या दूसरों के लिए क्रोध से या भय से पीड़ाकारक सत्य और असत्य न बोले, न दूसरों से बुलवाए। ४. मादाए वि य वेसो पुरिसो अलिएण होइ इक्केण।
किं पुण अवसेसाणं ण होइ अलिएण सत्तुव्व ।। (भग० ० ८४६) ___इस एक असत्य भाषाणरूपी दोष से झूठ बोलनेवाला मनुष्य माता का भी अविश्वसनीय हो जाता है, फिर अन्य अनेक लोगों के लिए वह शत्रु के समान क्यों नहीं होगा? ५. अप्पच्चओ अकित्ती भंभारदिकलहवेरभयसोगा।
वधबंधभेदणाणा सव्वे मोसम्मि सण्णिहिदा।। (भग० आ० ८४८)
अविश्वास, अकीर्ति, संक्लेश, अरति, कलह, वैर, भय, शोक, वध, बंधन, स्वजनभेद, धन-नाश आदि सारे दोष असत्य भाषण में सन्निहित हैं। १. स्त्री पुरुष वेश में है। यह मालूम न हो और उसे बाह्य वेश के आधार पर पुरुष कहे तो इससे
भी पाप होता है।