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१८. हिसा-विरति
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२. अजयं चिट्ठमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ।। (द० ४ : २)
अयतनापूर्वक खड़ा होनेवाला पुरुष (जीव मरे या न मरे) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल उसके लिए कटुक होता है। ३. अजयं आसमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ।। (द० ४ : ३)
अयतनापूर्वक बैठनेवाला पुरुष (जीव मरे या न मरे) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल उसके लिए कटुक होता है। ४. अजयं सयमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ।। (द० ४ : ४)
अयतनापूर्वक सोनेवाला पुरुष (जीव मरे या न मरे) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल उसके लिए कटुक होता है। ५. अजयं भुंजमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ।। (द० ४ : ५)
अयतनापूर्वक भोजन करनेवाला पुरुष (जीव मरे या न मरे) त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल उसके लिए कटुक होता है। ६. अजयं भासमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कड्यं फलं ।। (द० ४ : ६)
अयतनापूर्वक बोलने वाला पुरुष (जीव मरे या न मरे) त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल उसके लिए कटुक होता है। ७. कहं चरे कहं चिढे कहमासे कहं सए ।
कहं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ? ||" (द० ४ : ७)
१.
मू० १०१२ : . कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये। कधं भुजेज्ज भासिज्ज कधं पावं ग बज्झई ।।