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________________ १८. हिसा-विरति १४३ २. अजयं चिट्ठमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ।। (द० ४ : २) अयतनापूर्वक खड़ा होनेवाला पुरुष (जीव मरे या न मरे) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल उसके लिए कटुक होता है। ३. अजयं आसमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ।। (द० ४ : ३) अयतनापूर्वक बैठनेवाला पुरुष (जीव मरे या न मरे) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल उसके लिए कटुक होता है। ४. अजयं सयमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ।। (द० ४ : ४) अयतनापूर्वक सोनेवाला पुरुष (जीव मरे या न मरे) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल उसके लिए कटुक होता है। ५. अजयं भुंजमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ।। (द० ४ : ५) अयतनापूर्वक भोजन करनेवाला पुरुष (जीव मरे या न मरे) त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल उसके लिए कटुक होता है। ६. अजयं भासमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कड्यं फलं ।। (द० ४ : ६) अयतनापूर्वक बोलने वाला पुरुष (जीव मरे या न मरे) त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल उसके लिए कटुक होता है। ७. कहं चरे कहं चिढे कहमासे कहं सए । कहं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ? ||" (द० ४ : ७) १. मू० १०१२ : . कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये। कधं भुजेज्ज भासिज्ज कधं पावं ग बज्झई ।।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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