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________________ १४२ महावीर वाणी कितना भी प्रयत्न करो, तुंबी के बिना चक्र के आरे नहीं रह सकते हैं और आरों के बिना चक्र की नेमी नष्ट हो जाती है। वैसे ही अहिंसा के बिना सर्व शील नहीं टिकते। जैसे धान्य की रक्षा के लिए बाड़ होती है वैसे ही अहिंसा की रक्षा के लिए शील-व्रत हैं। ५. सीलं वदं गुणो वा णाणं णिस्संगदा सुहच्चाओ। जीवे हिंसंतस्स हु सव्वे वि णिरत्थया होति ।। (भग० आ० ७८६) शील, व्रत, गुण, ज्ञान, निष्परिग्रहता और विषय-सुख का त्याग-ये सर्व जीव हिंसा करनेवाले के लिए निरर्थक हो जाते हैं। ६. सव्वेसिमासमाणं हिदयं गमो व सव्वसत्थाणं। सव्वेसिं वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा हु।। (भग० आ० ७६०) यह अहिंसा सर्व आश्रमों का हृदय है, सर्व शास्त्रों का गर्भ है और सर्व व्रतों का पिंडभूत-निचोड़ा हुआ सार है। ७. जम्हा असच्चवयणादिएहिं दुक्खं परस्स होदित्ति। तप्परिहारो तम्हा सव्वे वि गुणा अहिंसाए ।। (भग० आ० ७६१) असत्य बोलने से, न दी हुई वस्तु लेने से, मैथुन से और परिग्रह से पर को दुःख होता है। अतः असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह का त्याग अहिंसा के ही गुण हैं, ऐसा समझना चाहिए। गोबंभणित्थिवधमेत्तिणियत्ति जदि हवे परमधम्मो। परमो धम्मो किह सो ण होइ जा सव्वभूददया।। (भग० आ० ७६२) गोहत्या, ब्राह्मणहत्या, स्त्रीवध-इनसे निवृत्त होना यदि उत्कृष्ट धर्म समझा जाता है, तो सर्व जीवों पर दया करना उत्कृष्ट धर्म क्यों नहीं माना जाएगा? ५. यतना धर्म १. अजयं चरमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ।। (द० ४ : १) अयतनापूर्वक चलनेवाला पुरुष (जीव मरे या न मरे) त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बन्ध होता है, जिसका फल उसके लिए कटुक होता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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