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________________ १८. हिसा-विरति १४१ [१०] २४. पाणे य नाइवाएज्जा से समिए त्ति वुच्चई ताई।। तओ से पावयं कम्मं निज्जाइ उदगं व थलाओ।। (उ० ८ : ६) जो जीवों की हिंसा नहीं करता और उनका त्रायी होता है, वह ‘समित' (सब तरह से सावधान) कहलाता है। उच्च स्थान से जैसे पानी निकल जाता है, वैसे ही अहिंसा से निरन्तर भावित प्राणी के कर्म-समूह दूर हो जाते हैं। [११] २५. जो समो सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य। तस्स सामाइयं होइ इह केवलिभासियं ।। . (अनु० ७, ८ : २) जो त्रस और स्थावर-सर्व जीवों के प्रति समभाव रखता है, उसी के सच्ची सामायिक होती है-ऐसा केवली भगवान ने कहा है। ४. अहिंसा की महिमा १. णत्थि अणूदो अप्पं आयासादो अणूणयं णत्थि । . जह तह जाण महल्लं ण वयमहिंसासमं अस्थि ।। (भग० आ० ७८४) जैसे इस जगत् में अणु से छोटी दूसरी वस्तु नहीं है और आकाश से बड़ी कोई चीज नहीं है, उसी प्रकार अहिंसा व्रत के समान सूक्ष्म या उससे बड़ा कोई व्रत नहीं है। २. जह पव्वदेसु मेरू उव्वाओ होइ सव्वलोयम्मि। तह जाणसु उव्वायं सीलेसु वदेसु य अहिंसा।। (भग० आ० ७८५) जैसे सर्व जगत् में समस्त पर्वतों में मेरुपर्वत ऊँचा है, वैसे ही यह अहिंसा व्रत संपूर्ण शील और समस्त व्रतों में उत्कृष्ट है। ३. सव्वो वि जहायासे लोगो भूमीए सव्वदीउदधी। तह जाण अहिंसाए वदगुणसोलाणि तिळंति।। (भग० आ० ७८६) __ जैसे यह सारा लोक आकाश में है, और सर्व द्वीप और समुद्र पृथ्वी पर, वैसे ही व्रत, गुण और शील ये सब अहिंसा में स्थित हैं। ४. कुव्तस्स वि जत्तं तुंबेण विणा ण ठंति जह अरया। अरएहिं विणा य जहा पठ्ठं णेमी दु चक्कस्स ।। तह जाण अहिंसाए विणा ण सीलाणी ठंति सव्वाणि । तिस्सेव रक्खणठं सीलाणि वदीव सस्सस्स ।। (भग० आ० ७८७-८८)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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