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१८. हिंसा-विरति
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हो सकता है। त्रस हो या स्थावर-सब जीवों को दुःख अप्रिय होता है। अतः मुमुक्षु सभी जीवों की हिंसा न करे।
[४] १४. उड्ढं अहे यं तिरियं दिसासु तसा य जे थावर जे य पाणा। हत्थेहि पादेहि य संजमित्ता अदिण्णमण्णेसु य णो गहेज्जा ।।
(सू० १, १० : २) ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो भी त्रस या स्थावर प्राणी हैं, हाथ और पैरों को संयमित कर उनका प्राण-हरण नहीं करना चाहिए। अन्य की बिना दी हुई वस्तु न ले। १५. एतेसु बाले य पकुव्वमाणे आवट्टती कम्मसु पावएसु। अतिवाततो कीरति पावकम्मं णिउंजमाणे उ करेइ कम्म।।
(सू० १, १० : ५) अज्ञानी मनुष्य इन पृथ्वी आदि जीवों के प्रति दुर्व्यवहार करता हुआ पाप-कर्म संचय कर बहुत दुःख पाता है। जो खुद जीवों का घात करता है और जो जीवों का घात कराता है दोनों ही पाप-कर्म का उपार्जन करते हैं। १६. सव्वं जगं ने समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा
(सू० १, १० : ७) मुमुक्षु सर्व जगत् अर्थात् सर्व जीवों को समभाव से देखनेवाला हो। वह किसी का प्रिय और किसी का अप्रिय न करे। सारे जगत् के-छोटे और बड़े सब प्राणियों को आत्मा के समान देखे।
[५] १७. सयं तिवातए पाणे अदुवा अण्णेहिं घायए।
हणंतं वाणुजाणाइ वेरं वड्ढइ अप्पणो।। (सू० १, १ (१) : ३)
जो स्वयं जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या जो जीव-हिंसा का अनुमोदन करता है, वह अपने वैर की वृद्धि करता है।
[६] १८. सदा सच्चेण संपण्णे मेत्तिं भूतेसु कप्पए।। (सू० १, १५ : ३)
जिसकी अन्तरात्मा सदा सत्य भावों से सम्पन्न (ओतप्रोत) रहती है, वह सब जीवों के प्रति मैत्री भाव रखे।