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________________ १३८ महावीर वाणी ८. उड्ढं अहे तिरियं च जे केइ तसथावरा। सव्वत्थ विरतिं कुज्जा संति णिव्वाणमाहियं ।। (सू० १, ११ : ११) ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक्-तीनों लोक में जो भी त्रस और स्थावर जीव हैं, मनुष्य को उन सबके प्राणातिपात से सर्वत्र विरत रहना चाहिए। सब जीवों के प्रति वैर की विरति-शान्ति को ही निर्वाण कहा है। ६. पभू दोसे णिराकिच्चा ण विरुज्झेज्ज केणइ। मणसा वयसा चेव कायसा चेव अंतसो।। (सू० १, ११ : १२) इन्द्रियों को जीतनेवाला पुरुष सर्व दोषों का त्याग कर किसी भी प्राणी के साथ जीवन-पर्यन्त मन, वचन और काया से वैर-विरोध न करे। १०. विरते गामधम्मेहिं जे केई जगई जगा। तेसिं अत्तुवमायाए थामं कुव्वं परिव्वए।। (सू० १, ११ : ३३) शब्दादि इन्द्रियों के विषयों से विरत पुरुष इस जगत् में जो भी त्रस और स्थावर जीव हैं, उनका आत्मतुल्य भावना से रक्षण करता हुआ पूरी शक्ति के साथ आत्मिक संयम का पालन करे। ११. जे य बुद्धा अतिक्कंता जे य बुद्धा अणागया। संती तेसिं पइट्ठाणं भूयाणं जगई जहा।। (सू० १, ११ : ३६) जो तीर्थंकर हो चुके हैं और जो तीर्थंकर होनेवाले हैं, उन सबका प्रतिष्ठान (आधार-स्थान) शान्ति (सब जीवों के प्रति दयारूप भाव) है; जिस तरह कि सब जीवों का आधार पृथ्वी है। [३] १२. जे कइ तसा पाणा चिट्ठतदुव थावरा। परियाए अत्थि से अंजू जेण ते तसथावरा।। (सू० १, १ (४) : ८) जगत् में कई जीव त्रस हैं और कई जीव स्थावर । एक पर्याय में होना या दूसरे में होना अवश्य ही कर्मों की विचित्रता है। अपनी-अपनी कमाई है, जिससे जीव त्रस या स्थावर पर्याय में हैं। १३. उरालं जगतो जोगं विवज्जासं पलेंति य। सव्वे अकंतदुक्खा य अओ सव्वे अहिंसगा।। (सू० १, १ (४) : ६) जीवों की अवस्था उदार (स्थूल) होती है और वह विपर्याय (परिवर्तन) को प्राप्त होती रहती है। एक ही जीव, जो एक जन्म में अस होता है, दूसरे जन्म में स्थावर
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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