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हिंसा-विरति
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क्या करेगा? वह क्या जानेगा-क्या श्रेय है और क्या पाप (हिंसा कैसे होती है और अहिंसा क्या है ? २. जो जीवे वि न याणाइ अजीवे वि न याणई।
जीवाजीवे अयाणंतो कहं सो नाहिइ संजमं।। (द० ४ : १२)
जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता, वह जीव और अजीव को नहीं जाननेवाला संयम-अहिंसा को कैसे जानेगा? ३. जो जीवे वि वियाणाइ अजीवे वि वियाणई।
जीवाजीवे वियाणंतो सो हु नाहिइ संजमं।। (द० ४ : १३)
जो जीवों को भी जानता है, अजीवों को भी जानता है, वही-जीव और अजीव दोनों को जाननेवाला ही संयम-अहिंसा को जान सकेगा।
[२] ४. पुढवीजीवा पुढो सत्ता आउजीवा तहागणी।
वाउजीवा पुढो सत्ता तण रुक्खा सबीयगा।। (सू० १, ११ : ७)
(१) पृथ्वी, (२) जल, (३) अग्नि, (४) वायु और (५) घास-वृक्ष-धान आदि वनस्पति-ये सब अलग-अलग जीव हैं। पृथ्वी आदि हरेक में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व के धारक अलग-अलग जीव हैं। ५. अहावरे तसा पाणा एवं छक्काय आहिया।
इत्ताव एव जीवकाए णावरे विज्जती कए।। (सू० १, ११ : ८)
उपर्युक्त स्थावर जीवों के उपरान्त त्रस प्राणी हैं, जिनमें चलने-फिरने का सामर्थ्य होता है। यही छः जीवनिकाय कहा गया है। इन छः प्रकार के जीवों के सिवा संसार में और जीव नहीं हैं। ६. सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं मइमं पडिलेहिया।
सव्वे अकंतदुक्खा य अतो सव्वे अहिंसया।। (सू० १, ११ : ६)
बुद्धिमान् पुरुष छः प्रकार के जीवों का सब प्रकार की युक्तियों से ज्ञान प्राप्त कर तथा 'सभी को दुःख अप्रिय है', यह जानकर उन सबकी हिंसा न करे। ७. एयं खु णाणिणो सारं जं ण हिंसति कंचणं। ..
अहिंसा-समयं चेव एतावंतं विजाणिया।। (सू० १, ११ : १०)
ज्ञानी के लिए ज्ञान का सार यही है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। अहिंसा-समता-सर्व जीवों के प्रति आत्मवत् भाव-इतना ही शाश्वत धर्म समझो।