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४. जीववहो अप्पवहो जीवदया होइ अप्पणो हु दया । विसकंटओव्व हिंसा परिहरियव्वा तदो होदि ।। (भग० आ० ७६४)
महावीर वाणी
प्राणियों का नाश करना तत्त्वतः अपना ही नाश करना है और प्राणियों पर दया करना तत्त्वतः अपने ही ऊपर दया करना है। अतः हिंसा विष से लिप्त हुए कंटक की तरह त्याज्य है ।
५. मारणसीलो कुणदि हु जीवाणं रक्खसुव्व उव्वेगं ।
संबंधिणो वि ण य विस्संभं मारिंतए जंति ।। (भग० आ० ७६५)
जो मनुष्य दूसरों को मारने में उद्यत होता है, वह प्राणियों को राक्षस के समान भय उत्पन्न करता है। उसके संबंधी मनुष्य भी उसके ऊपर विश्वास नहीं रखते हैं। ६. कुद्धो परं वधित्ता सयंपि कालेण मारइज्जते । हदघादयाण णत्थि विसेसो मुत्तूण तं कालं ।।
(भग० आ० ७६७ )
क्रुद्ध होकर जो मनुष्य दूसरों को मारता है, वह भी कुछ काल बीतने के अनन्तर मरण को प्राप्त होता है। इसलिए हत और घातक में कुछ अन्तर नहीं है। हाँ, केवल काल का ही अन्तर रहता है।
७. अप्पाउगरोगिदया विरूवदा विगलदा अवलदा य । दुम्मेहवण्णरसगंधदाय से होइ
परलोए ।। (भग० आ० ७६८)
हिंसा करनेवाला मनुष्य पर मरण में अल्पायुषी, रोगी, कुरूप, विकलेन्द्रिय (अर्थात् अंघा, बहरा, गूँगा), दुर्बल, मूर्ख, अशुभ वर्ण, रस और गन्धवाला होता है।
८. जावइयाइं दुक्खाई होंति लोयम्मि चदुगदिगदाई ।
सव्वाणि ताणि हिंसाफलाणि जीवस्स जाणहि ।। (भग० आ० ८०० )
इस जगत् में चार गतियों में जो भी दुःख जीव को प्राप्त होते हैं, वे सर्व हिंसा के ही फल हैं, ऐसा समझना चाहिए।
३. अहिंसा [१]
१. पढमं नाणं तओ दया एवं चिट्ठइ सव्वसंजए ।
अन्नाणी किं काहि किं वा नाहिइ छेय पावगं । ।
(द०४ : १० )
पहले सर्व प्रकार जीवों का ज्ञान हो तभी दया-अहिंसा का पालन हो सकता है। सभी संयमी पुरुष इस प्रकार ज्ञान और क्रिया में स्थित होते हैं। अज्ञानी बेचारा