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१८. हिसा-विरति ६. जदि सुद्धस्स य बंधो होहिदि बाहिरगवत्थुजोगेण ।
णत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायादिवधहेदु।। (भग० आ० ८०६)
यदि राग-द्वेष रहित आत्मा को भी बाह्य वस्तु के संबंध से बंध होगा, तो जगत् में कोई भी अहिंसक नहीं है, ऐसा मानना पड़ेगा अर्थात् शुद्धात्मा को भी वायुकायिक जीव के वध के लिए समझना होगा। ७. पादोसिय अधिकरणीय कायिय परिदावणादिवादाए।
एदे पंचपओगा किरियाओ होंति हिंसाओ।। (भग० आ० ८०७)
द्वेष से उत्पन्न क्रिया प्राद्वेषिकी क्रिया है। हिंसा के उपकरणों को ग्रहण करना अधिकरणिकी क्रिया है। दुष्टता पूर्वक शरीर का चलन होना कायिकी क्रिया है। दुःखोत्पत्ति के लिए जो क्रिया की जाती है, उसको पारितापिनिकी क्रिया कहते हैं। आयु, इन्द्रिय, बल और प्राण इनका घात करने वाली क्रिया को प्राणातिपाति क्रिया कहते हैं। ये पाँच प्रकार के प्रयोग हिंसा की क्रियाएँ हैं।
२. हिंसा त्याज्य क्यों ? १. जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेसिंपि जाण जीवाणं ।
एव णच्चा अप्पोवमिवो जीवेसु होदि सदा।। (भग० आ० ७७७)
यह जानो कि जैसे तुमको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही अन्य जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है। ऐसा जानकर सर्व जीवों में सदा आत्मोपम भाव रखो (अपने को दुःख नहीं देते वैसे ही दूसरों को दुःख देने से निवृत्त हो)। २. तेलोक्कजीविदादो वरेहि एक्कदरुमत्ति देवेहिं।
भणिदो को तेलोक्कं वरिज्ज संजीविदं मुच्चा।। (भग० आ० ७८२)
त्रैलोक्य और जीवन इन दोनों में से कोई एक ग्रहण कर सकते हो, ऐसा देवों के द्वारा कहा जाने पर कौन जीवन छोड़कर त्रैलोक्य को लेगा?
३. सव्वे वि य संबंधा पत्ता सव्वेण सव्वजीवहिं। __ तो मारंतो जीवो संबंधी चेव मारेइ।। (भग० आ० ७६३)
सर्व जीवों का सर्व जीवों के साथ पिता, पुत्र माता इत्यादि रूप संबंध अनेक भवों में हुआ है। इसलिए मारने के लिए उद्यत हुआ मनुष्य अपने संबंधी को ही मारता है, ऐसा समझना चाहिए।