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( : १८ :) हिंसा-विरति
१. हिंसा की कसौटी १. हिंसादो अविरमणं वहपरिणामो य होइ हिंसा हु।
तम्हा पमत्तजोगे पाणव्ववरोवओ णिच्च ।। (भग०आ० ८०१)
हिंसा से विरत न होना अथवा हिंसा करने के परिणामों का होना हिंसा है। अतः • प्रमत्त योग निश्चित रूप से हिंसा है। २. रत्तो वा दुट्ठो वा मूढो वा जं पयुंज दि पओगं। हिंसा वि तत्थ जायदि तह्मा सो हिंसगो होइ।। (भग० आ० ८०२)
रागी, द्वेषी अथवा मूढ़ बनकर आत्मा जो कार्य करता है, उससे हिंसा होती है। अतः वह हिंसक है। ३. अत्ता चेव अहिंसा अत्ता हिंसत्ति णिच्छओ समये।
जो होदि अप्पमत्तो अहिंसगो हिंसगो इदरो।। (भग० आ० ८०३)
आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है। अप्रमत्त अर्थात् प्रमादरहित आत्मा को अहिंसक कहते हैं और प्रमादसहित आत्मा को हिंसक कहते हैं, ऐसा आगम का निर्णय है। ४. अज्झवसिदो य बद्धो सत्तो दु मरेज्ज णो मरिज्जेत्थ ।
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छंयणयस्स ।। (भग० आ० ८०४)
बद्ध जीव राग-द्वेषादि परिणामों के अधीन होता है। अन्य जीव मरे अथवा न मरे, फिर भी जिसके परिणाम हिंसा के हैं उसके बंध होता ही है। अक्षुण निश्चय नय से जीवों के कर्म-बंध का यह संक्षेप में स्वरूप कहा है। ५. णाणी कम्मस्स खयत्थमुठिठ्दो णोठ्दिो य हिंसाए।
अददि असढो हि यत्थं अप्पमत्तो अवधगो सो।। (भग० आ० ८०५)
ज्ञानी पुरुष कर्मक्षय करने के लिए उद्यत है, हिंसा के लिए उद्यत नहीं है। वह अशठ होकर ही अपने हित के लिए प्रवृत्ति करता है। वह अप्रमत्त है अतः हिंसा हो जाने पर भी वह अवधक ही कहा गया है।