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१७. ज्ञान-कण
१३३ ७. सावज्जजोगवयणं वज्जंतो ऽवज्जभीरु गुणकंखी।
सावज्जवज्जवयणं णिच्चं भासेज्ज भासंतो।। (मू० ३१७)
जो पापों से डरता है, गुणों को चाहता है, वह बोलते समय पापयुक्त वचनों का : परिहार करता हुआ हमेशा पाप-रहित वचनों को बोले। ८. तं वत्थु मोत्तव्वं जं पडि उप्पज्जदे कसायग्गि।
तं वत्थुमल्लिएज्जो जत्थोवसमो कसायाणं ।। (भग० आ० २६२)
उस वस्तु को छोड़ देना चाहिए जिसका निमित्त पाकर कषायाग्नि प्रज्वलित हो जाती है और उस वस्तु का आश्रय करना चाहिए जिससे कषायों का उपशम होता है। ६. बीहेदव्वं णिच्चं दुज्जणवयणा पलोट्टजिब्मस्स।
यरणयरणिग्गमं मिव वणयकयारं वहंतस्स।। (मू ६६२) .
जिसकी जिहा सदा पलटती रहती है, उस दुर्जन के वचनों से सदा ही डरते रहना चाहिए। दुर्जन की जिहा दुष्ट वचनों को वैसे ही निकालती रहती है जैसे श्रेष्ठ नगर का नाला कचरे को बहाता रहता है। १०. ददंता इंदिया पंच संसाराए सरीरिणं।
ते चेव णियमिया संताणेज्जाणाए भवंति हि।। (इसि० १६ : १) ।
देहधारी की दुर्दान्त पाँच इन्द्रियाँ संसार की हेतु बनती हैं। वे ही संवृत हो जाने पर मोक्ष की हेतु बन जाती हैं। ११. दुदंते इंदिए पंच रागदोसपरंगमे।
कुम्मो विव स अंगाई सए देहम्मि साहरे।। (इसि० १६ : २)
राग और द्वेष के वश विषयों में प्रवृत्त पाँचों इन्द्रियाँ दुर्दान्त होती हैं। संकट की आशंका होते ही जैसे कूर्म अपने अंगों को अपने शरीर में संकोच लेता है वैसे ही साधक विषयों की ओर जाती हुई इन्द्रियों को उनसे हटा ले।