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________________ १३२ ४२. जेण बंधं मोक्खं च जीवाणं गतिरागतिं । आयाभावं च जाणाति सा विज्जा दुक्खमोयणी ।। (इसि० १७ : २) जिसके द्वारा आत्मा के बन्ध, मोक्ष, गति और आगति का परिज्ञान होता है, वही विद्या दुःख से मुक्त करने में समर्थ है। २. शिक्षा - कण १. थोवं जेमेहि मा बहू जंप । महावीर वाणी थोड़ा आहार कर । बहुत मत बोल । २. दुःखं सह जिण णिद्दा मेत्तिं भावेहिं सुट्टु वेरग्गं । (मू० ८६५) दुःख को सहन कर, निद्रा को जीत, मैत्री भाव का चिंतन कर, अच्छा वैराग्य रख । ३. जातिं च बुडिंद् च इहज्जपासे भूतेहिं जाणे पडिलेह सातं । तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा सम्मत्तदंसी ण करेति पावं । । ( आ० १, ३ (२) : २६-२८) ४. नाणेणं दंसणेणं च चस्तेिण तवेण य खंतीए मुत्तीए वड्ढमाणो भवाहि य।। आर्य ! संसार में जन्म और जरा को देख। विचारकर जान- सब प्राणियों को सुख प्रिय है। इसलिए तत्त्वज्ञ सम्यकदृष्टि परमार्थ को जानकर किसी प्राणी के प्रति पाप कर्म नहीं करते । (मू० ८६५) ५. नाणारुइं च छंदं च परिवज्जेज्ज संजए । अट्ठा जे य सव्वत्था इइ विज्जामणुसंचरे ।। ( उ० २२ : २६) तुम ज्ञान, दर्शन और चरित्र से तथा तप, क्षमा और निर्लोभता से सदा वृद्धि पाते रहना । ६. धुणिया कुलियं व लेववं कसए देहमणासणादिहिं । ( उ०१८ : ३०) संयमी नाना प्रकार की रुचि, अभिप्राय और जो सब प्रकार के अनर्थ हैं उनका वर्जन करे। इस विद्या के पथ पर तुम्हारा संचरण हो । (सू० १,२ (१) : १४) जैसे लेपवाली भित्ति लेप गिराकर क्षीण कर दी जाती है, इसी तरह अनशन आदि तप द्वारा अपनी देह को कृश कर ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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