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१७. ज्ञान- कण
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जो अपने बल और वीर्य का गोपन नहीं करता, जो यथोक्त धर्म में पराक्रम करता है, जो अपने-आपको अपनी शक्ति के अनुसार अध्यात्म-साधन में लगाता है, उस पुरुष के वीर्याचार जानना चाहिए ।
३४. लाभंमि जेण सुमणो अलाभे णेव दुम्मणो ।
से हु सेट्ठे मणुस्साणं देवाणं सयक्कऊ ।।
(इसि० ४३ : १)
लाभ में जो सुमन (हर्षित) नहीं है और न अलाभ में दुमन (दुःखित) है, वही मनुष्यों में श्रेष्ठ है, जैसे देवों में शतक्रतु (इन्द्र) ।
३५. जो अवमाणणकरणं दोस' परिहरइ णिच्चमाउत्तो ।
सो णाम होदि माणी ण दु गुणचत्तेण माणेण ।। (भग० आ० १४२६)
जो पुरुष अपमान के कारणभूत दोषों का हमेशा सावधानी के साथ त्याग करता है, वही सच्चा मानी है। गुण-रहित होकर भी मान करने से कोई मानी नहीं होता । ३६. विसय-वसादो सुक्खं जेसिं तेसिं कुदो तित्ती । (द्वा० अ० ५६) जिनके सुख इन्द्रिय के विषयों पर आधारित हैं, उन्हें तृप्ति कैसे होगी ? ३७. माणस-दुक्ख-जुदस्स हि विसया वि दुहावहा हुंति । ( द्वा०अ० ६०) मानसिक दुःख से संयुक्त पुरुष को प्रचुर विषय सामग्री भी दुःखदायी ही होती है। ३८. विषय-वसं जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि । ( द्वा०अ० ६१)
जो सुख विषयों के अधीन है, वह दुःख ही का कारण है। ३६. अत्ताणं ण दु सोयदि संसारमहण्णवे बुड्डं ।
(मू० ७०१)
आश्चर्य है कि मनुष्य संसार रूपी समुद्र में डूबती हुई अपनी आत्मा का कुछ भी सोच नहीं करता ।
४०. वर वयतवेहिं सग्गो मा दुक्खं होइ णिरइ इमरेहिं ।
छायातवट्ठियाणं
पडिवालंताण
गुरुभेयं ।। (मो० पा० २५)
व्रत और तप से स्वर्ग पाना उत्तम है, किन्तु इतर (अव्रत और अतप) से नरक में दुःख होता है, वह न हो । छाया और धूप में बैठे हुए मनुष्यों में जैसे बहुत भेद है, वैसे ही व्रत और तप का पालन करने वालों में बहुत भेद है।
४१. इमा विज्जा महाविज्जा सव्वविज्जाण उत्तमा ।
जं विज्जं साहइत्ताणं सव्वदुक्खाण मुच्चति ।।
(इसि० १७ : १)
वह विद्या महाविद्या है और समस्त विद्याओं में श्रेष्ठ है, जिस विद्या की साधना कर आत्मा समस्त दुःखों से मुक्त हो जाती है।