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महावीर वाणी
मृदु और मार्दव से सम्पन्न, गम्भीर और सुसमाहित महात्मा शील-सम्पन्न होकर पृथ्वी पर विचरता है। २७. दुविहं खवेऊण य पुण्यपावं । निरंगणे सब्वओ विप्पमुक्के।।
(उ० २१ : २४) जो भी साधक सयम में निश्चल और सर्वतः विप्रमुक्त रहा वह पुण्य और पाप दोनों का क्षय कर अपुनरागम-गति-मोक्ष में गया है। २८. जो चिंतइ अप्पाणं णाण-सरूवं पुणो पुणो णाणी।
विकहादिविरत्तमणो पायच्छित्तं वरं तस्स।। (द्वा० अ० ४५५)
जो ज्ञानी विकथादि प्रमादों से विरक्त होता हुआ ज्ञानस्वरूप आत्मा का पुनःपुनः चिन्तन करता है उसके श्रेष्ठ प्रायश्चित्त होता है। २६. एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेण।
पुण्णाणि य पूरेदूं आसिद्धिपरंपरसुहाणं । ।(भग० आ० ७४६)
अकेले जिन-भक्ति ही दुर्गति का निवारण करने में समर्थ है। इससे पुण्यों की प्राप्ति होती है। जब तक साधक को मोक्ष होता है तब तक इसके प्रभाव से उत्तमोत्तम सुखों की प्राप्ति होती रहती है। ३०. पाणाइवाए वटुंता मुसावाए असंजया।
अदिण्णादाणे वस॒ता मेहुणे य परिग्गहे ।। (सु० १, ३ (४) : ८)
जीव-हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह में लगे हुए लोग असंयमी हैं। ३१. कुप्पवयणपासण्डी सव्वे . उम्मग्गपट्ठिया।
सम्मग्गं तु जिणक्खायं एस मग्गे हि उत्तमे।। (उ० २३ : ६३)
जो कुप्रवचन के प्रावादुक हैं, वे सब उन्मार्ग में प्रस्थित हैं। जो जिन द्वारा कहा गया है वह सन्मार्ग है। अतः यही उत्तम मार्ग है। ३२. अभविंसु पुरा वीरा आगमिस्सा वि सुव्वया।
दुण्णि बोहस्स मग्गस्स अंतं पाउकरा तिण्ण।। (सू० १, १५ : २५)
पूर्व समय में बहुत से धीर पुरुष हो चुके हैं और भविष्य काल में भी ऐसे सुव्रती पुरुष होंगे जो दुर्निबोध-दुष्प्राप्य-मोक्ष-मार्ग की अन्तिम सीमा पर पहुंचकर तथा उसे दूसरों को प्रकट कर इस संसार-सागर से तिरे हैं या तिरेंगे। ३३. अणिगूहियबलविरिओ परकामदि जो जहुत्तमाउत्तो।
जुंजदि च जहाथाणं विरियाचारोति णादवो।। (मूल० ४१३)