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________________ १७. ज्ञान- कण १२६ स्त्री के साथ विषय- भांग की अभिलाषा, इन्द्रिय-विकार, प्रणीत (स्निग्ध) रसों का सेवन, (स्त्री और पशुओं से ) संसक्त वस्तुओं का सेवन, स्त्री की इन्द्रियों का अवलोकन, स्त्रियों का सत्कार, उनका सम्मान, पूर्व क्रीड़ाओं का स्मरण, भविष्य में क्रीड़ाओं की अभिलाषा, इष्ट विषयों का सेवन-ये दश अब्रह्म हैं । २१. सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु यदि दुब्भावं । सो बह्मचेरभावं सक्कदि खलु दुद्धरं धरदि । । (कुन्द० अ० ११ : ८०) जो स्त्रियों के सब अंगों को देखता हुआ भी उनके प्रति मन में किसी भी प्रकार का कुविचार नहीं लाता, वह धर्मात्मा दुर्धर ब्रह्मचर्य भाव का धारी है। २२. धंसेइ जो अभूएणं अकम्मं अत्त-कम्मुणा। अदुवा तुमं कासित्ति महामोहं पकुव्वइ ।। (दशा० ६ : ८) जो अपने किये हुए दुष्कर्म को न करनेवाले पर थोपकर उसे लांछित करता है अथवा कहता है कि यह पाप तूने किया है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है ! २३. बहुदुक्खा हु जंतवो, सत्ता कामेहिं अबलेण वहं गच्छंति सरीरेण माणवा, पभंगुरेण । (आ० १,६ (१) : १५-१७) जीव बहुत दुःखों से घिरे हुए हैं तथापि मनुष्य कामभोगों में आसक्त रहते हैं । क्षणभंगुर शरीर से पाप कर्म कर वे अवश हो भयंकर दुःख पाते रहते हैं । २४. सवणे नाणे य विण्णाणे पच्चक्खाणे य संजमे । अणहए तवे चेव वोदाणे अकिरिया सिद्धी । । ( भगवई २, १११) पर्युपासना से धर्म-श्रवण धर्म-श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान, विज्ञान से प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान से संयम, संयम से अनास्रव, अनास्रव से तप, तप से कर्मक्षय, कर्म-क्षय से अक्रिया और अक्रिया से सिद्धि की प्राप्ति होती है। 1 २५. जे ममाइय-मतिं जहाति से जहाति ममाइयं । से हु दिट्टप मुणी जस्स णत्थि ममाइयं । । २६. मिउ मद्दवसंपन्ने गम्भीरे सुसमाहिए । विहरइ महिं महप्पा सीलभूएण अप्पणा ।। (आ० १,२ (६) : १५६-५७) जो ममत्व - बुद्धि का त्याग करता है वह ममत्व - परिग्रह का त्याग करता है। जिसके ममत्व नहीं है, वही ज्ञानी मार्ग द्रष्टा है । ( उ० २७ : १७)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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