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________________ १२८. १५. सयणस्स जणस्स पिओ णरो अमाणी सदा हवदि लोए । गाणं जसं च अत्थं लभदि सकज्जं च साहेदि । । महावीर वाणी (भग० आ० १३७६) निरभिमानी पुरुष लोक में स्वजनों और परिजनों का प्रिय होता है। वह लोक में ज्ञान, यश, और धन को प्राप्त करता है तथा अपने कार्यों को साध लेता है। १६. ण य परिहायदि कोई अत्थे मउगत्तणे पउत्तम्मि । इह य परत्त य लब्भदि विणएण हु सव्वकल्लाणं | | ( भग० आ० १३८०) मार्दव के प्रयोग से कभी कोई हानि नहीं होती। विनय से मनुष्य निश्चित इहलोक और परलोक में सब कल्याण प्राप्त करता है । १७. जह तुम्भे तह अम्हे तुम्हे वि होहिहा जहा अम्हे । पंडुअ-पत्तं अम्पााहेइं पडतं किसलयाणं ।। (अनु०) तुम पीला पत्ता जमीन पर पड़ता हुआ अपने साथी हरे पत्ते से बोला-अ - आज जैसे हो हम भी एक दिन वैसे ही थे। अब जैसे हम हैं, एक दिन तुम्हें भी वैसा ही होना है। १८. जह मक्कउओ धादो वि फलं दट्ठूण लोहिदं तस्स । दूरस्थस्स वि डेवदि घित्तूण वि जइ वि छंडेदि ।। एवं जं जं पस्सदि दव्वं अहिलसदि पाविदुं तं तं । सव्वजगेण वि जीवो लोभाइट्ठो न तिप्पेदि । । (भग० आ० ८५४-५५) १६. सग्गं तवेण सव्वो वि पावए किंतु झाणजोएण । जो पावइ सो पावइ परे भवे सासयं सुक्खं । । जैसे खा-पीकर तृप्त हुआ भी बानर किसी लाल फूल को दूर से देखकर उसे लेने के लिए दौड़ता है, यद्यपि वह उसे लेकर छोड़ देता है। इसी प्रकार लोभाविष्ट जीव जिस-जिस पदार्थ को देखता है उसको ग्रहण करने की इच्छा करता है और सर्व जगत् से भी वह तृप्त नहीं होता । (मो० पा० २३) तप से तो सभी स्वर्ग प्राप्त करते हैं, किन्तु ध्यान के द्वारा जो प्राप्त करता है वह दूसरे भव के अविनाशी सुख -मोक्ष को प्राप्त करता है । चेव । । संसत्तदव्वसेवा २०. इच्छिविसयाभिलासो वच्छिविमोक्खो य पणिदरससेवा । तदिदियालोयणं सक्कारो संकारो अदीदसुमरणमणागदभिलासे । इठविसयसेवा वि य अब्बंभं दसविहं एदं । । (भग० आ० ८७९-८०)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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