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________________ १७. ज्ञान - कण १२७ ८. कुविदा वि सव्व - कालं अण्णोण्णं होंति णेरइया । (द्वा० अनु० ३८) नारकी जीव सदा काल परस्पर क्रोधित होते रहते हैं । ६. कक्कस्सवयणं णिडुरवयणं पेसुण्णहासवयणं च । जं किंचिं विप्पलावं गरहिदवय़णं समासेण ।। (भग० आ० ८३०) कर्कश वचन, निठुर वचन, चुगलखोरी का वचन, मखौल उड़ानेवाला वचन एवं विप्रलाप - बेसिर-पैर की बात-ये समास में निन्दनीय वचन हैं । १०. मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे स्मक्खादं । सम्मत्तं मग्गफलं होइ णिव्वाणं ।। मग्गो खलु (मू २०२ ) जिन - शासन में मार्ग और मार्ग-फल-ये दो कहे गए हैं। उनमें से मार्ग तो सम्यक्त्व है और मार्ग फल मोक्ष । ११. जो पुण चिंतदि कज्जं सुहासुहं राय-दोस-संजुत्तो । उवओगेण विहीणं स कुणदि पावं विणा कज्जं । । ( द्वा० अनु० ३८६) राग-द्वेष से संयुक्त हो जो बिना प्रयोजन ही शुभ-अशुभ चिन्तन करता है, वह पुरुष बिना कार्य पापोत्पन्न करता है । १२. देहे छुहादिमहिदे चले य सत्तस्स होज्ज कह सोक्खं । (भग० आ० १२४६) देह क्षुधा आदि से पीड़ित होता है। वह अनित्य भी है। ऐसे शरीर में आसक्त होने से आत्मा को कैसे सुख प्राप्त होगा ? १३. जदि ण हवदि सव्वण्हू, ता को जाणदि अदिदियं अत्थं । इंदिय-णाणं ण मुणदि थूलं पि असेस -पज्जायं || ( द्वा० अनु० ३०३) १४. कंडणी पीसणी चुल्ली उदकुंभं पमज्जणी | बीदव्वं णिच्चं ताहिं जीवरासी से मरदि । । यदि सर्वज्ञ नहीं होता तो अतीन्द्रिय पदार्थ को कौन जानता ? इन्द्रिय ज्ञान तो स्थूल पदार्थ को ही जानता है, उसकी समस्त पर्यायों को भी नहीं जानता । (मू० ६२६) ओखली, चक्की, चूल्हा, जल रखने का स्थान, बुहारी - इन पाँचों से सदा भयभीत रहना चाहिए, क्योंकि इनसे जीव- समूह मृत्यु को प्राप्त होता है ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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