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१७. ज्ञान - कण
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८. कुविदा वि सव्व - कालं अण्णोण्णं होंति णेरइया । (द्वा० अनु० ३८)
नारकी जीव सदा काल परस्पर क्रोधित होते रहते हैं ।
६. कक्कस्सवयणं णिडुरवयणं पेसुण्णहासवयणं च । जं किंचिं विप्पलावं गरहिदवय़णं समासेण ।।
(भग० आ० ८३०)
कर्कश वचन, निठुर वचन, चुगलखोरी का वचन, मखौल उड़ानेवाला वचन एवं विप्रलाप - बेसिर-पैर की बात-ये समास में निन्दनीय वचन हैं ।
१०. मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे स्मक्खादं । सम्मत्तं मग्गफलं होइ णिव्वाणं ।।
मग्गो खलु
(मू २०२ ) जिन - शासन में मार्ग और मार्ग-फल-ये दो कहे गए हैं। उनमें से मार्ग तो सम्यक्त्व है और मार्ग फल मोक्ष ।
११. जो पुण चिंतदि कज्जं सुहासुहं राय-दोस-संजुत्तो । उवओगेण विहीणं स कुणदि पावं विणा कज्जं । ।
( द्वा० अनु० ३८६)
राग-द्वेष से संयुक्त हो जो बिना प्रयोजन ही शुभ-अशुभ चिन्तन करता है, वह पुरुष बिना कार्य पापोत्पन्न करता है ।
१२. देहे छुहादिमहिदे चले य सत्तस्स होज्ज कह सोक्खं ।
(भग० आ० १२४६)
देह क्षुधा आदि से पीड़ित होता है। वह अनित्य भी है। ऐसे शरीर में आसक्त होने से आत्मा को कैसे सुख प्राप्त होगा ?
१३. जदि ण हवदि सव्वण्हू, ता को जाणदि अदिदियं अत्थं ।
इंदिय-णाणं ण मुणदि थूलं पि असेस -पज्जायं || ( द्वा० अनु० ३०३)
१४. कंडणी पीसणी चुल्ली उदकुंभं पमज्जणी |
बीदव्वं णिच्चं ताहिं जीवरासी से मरदि । ।
यदि सर्वज्ञ नहीं होता तो अतीन्द्रिय पदार्थ को कौन जानता ? इन्द्रिय ज्ञान तो स्थूल पदार्थ को ही जानता है, उसकी समस्त पर्यायों को भी नहीं जानता ।
(मू० ६२६)
ओखली, चक्की, चूल्हा, जल रखने का स्थान, बुहारी - इन पाँचों से सदा भयभीत रहना चाहिए, क्योंकि इनसे जीव- समूह मृत्यु को प्राप्त होता है ।