SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : १७ : ज्ञान-कण १. ज्ञान-कण १. दोसं ण करेदि सयं अण्णं पि ण कारएदि जो तिविहं । कुव्वाणं पि ण इच्छुइ तस्स विसोही परा होदि ।। (द्वा० अनु० ४५१) जो मन, वचन और काया से स्वयं दोष नहीं करता, दूसरे से भी दोष नहीं कराता और करते हुए को भी अच्छा नहीं मानता उसके उत्कृष्ट विशुद्धि होती है। २. अप्पा णं पि य सरणं खमादि-भावेहिं परिणदो होदि। (द्वा० अनु० ३१) क्षमादि भावों में परिणत आत्मा स्वयं अपना शरण होता है। ३. तिव्व-कषायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण। (द्वा० अनु० ३१) जो तीव्र कषाययुक्त होता है, वह अपने ही द्वारा अपना हनन करता है। ४. कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संसारघोरकांतारे। (कुन्द० अ० ३७) कर्मों के निमित्त से जीव संसाररूपी भयानक अटवी में भ्रमण करता है। ५. तिविहा य होइ कखा इह परलोए तधा कुधम्मे य। तिविहं पि जो ण कुज्जा दंसणसुद्धीमुपगदो सो।। (मू० २४६) कांक्षा तीन प्रकार की होती है। इस लोक में संपदा-प्राप्ति की कांक्षा, परलोक में संपदा-प्राप्ति की कांक्षा और कुधर्म की कांक्षा । जो इन तीनों कांक्षाओं को नहीं करता वही सम्यग्दर्शन की शुद्धि को प्राप्त करता है। ६. पाव-उदयेण णरए जायदि जीवो सहेदि बहु-दुक्खं । __ (द्वा० अनु० ३४) पापोदय से ही जीव नरक में उत्पन्न होता है और वहाँ बहुत दुःख को सहता है। ७. सव्वं पि होदि णरए खेत्त-सहावेण दुक्खदं असुहं । (द्वा० अनु० ३८) नरक में क्षेत्र-स्वभाव के कारण सभी वस्तुएँ दुःखदायक तथा अशुभ होती है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy