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१६. पाप-विरति
२. आत्म-निरीक्षण और पाप वर्जन
१. णियदोसे
निगूहंते चिरं पि णोवदंसए ।
किह मं कोपि णज्जाणे जाणेणत्त हियं सयं । ।
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(इसि० ४ : २)
पापी अपने दोषों को छिपाता है और चिर समय तक अपने दोषों को किसी के समक्ष प्रकट नहीं करता। वह सोचता है - दूसरा कोई भी मेरे इस पाप को नहीं जानता । परन्तु ऐसा सोचनेवाला अपना हित नहीं जानता ।
२. णेण जाणामि अप्पाणं आवी वा जति वा रहे
अज्जयारिं अणज्जं वा तं णाणं अयलं धुवं । । (इसि० ४ : ३) जिसके द्वारा मैं अपने-आपको जान सकूँ, प्रत्यक्ष या परोक्ष में होनेवाले अपने आर्य और अनार्य कर्मों को देख सकूँ, वहीं ज्ञान अचल और शाश्वत है I
३. अण्णहा समणे होई अन्नं कुणंति कम्मुणा । अण्णमण्णाणि भासते मणुस्य गहणे हु से ।।
(इसि० ४ : ५)
मन में वह कुछ और ही होता है, कर्म से कुछ और ही करता है और बोलता कुछ और ही । ऐसा मनुष्य गहन (अटवी) के समान गूढ है । ४. अदुवा परिसामज्झे अदुवा विरहे ततो निरिक्ख अप्पाणं पावकम्मा णिरुभति । ।
कडं ।
५. दुप्पचिण्णं सपेहाए अणायारं च अप्पणो ।
अणुवट्ठितो सदा धम्मे सो पच्छा परितप्पति ।।
(इसि० ४ :
८)
परिषद् में एक रूप होता है और एकान्त में दूसरा रूप । किन्तु सच्चा साधक आत्मा का निरीक्षण कर अपने-आपको पाप कर्मों से रोकता है।
(इसि० ४ : ६)
अपने दुष्चीर्ण कर्म और अनाचारों को देखता हुआ भी उपेक्षा करनेवाला और धर्म में सदा अनुपस्थित रहनेवाला मनुष्य अन्तिम समय में पश्चाताप करता है । ६. सुपइण्णं सपेहाए आयरं वा वि अप्पणो ।
सुपटिट्ठतो सदा धम्मे सो पच्छा उ ण तप्पति । । ( इसि० ४ : १०) अपने श्रेष्ठ आचारों के प्रति सदा जागरूक और धर्म में सदा सुप्रतिष्ठित रहनेवाला पुरुष अन्तिम घड़ी में पश्चाताप नहीं करता ।