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महावीर वाणी
५. पावं परस्स कुबंतो हसतो मोहमोहितो।
मच्छो गलं गसंतो वा विणिघातं ण पस्सती।। (इसि० १५ : ११)
जब मोह से मोहित आत्मा दूसरे (की हानि) के लिए पाप करता हुआ हर्षित होता है, तब वह भविष्य को नहीं समझता। मछली आटे की गोली को निगलती हुई अपनी मौत को नहीं देखती। ६. पावं जे उपकव्वंती जीवा साताणगामिणो। वढ्ढती पावकं तेसिं अणग्गाहिस्स वा अणं ।। (इसि० १५ : १५)
जो प्राणी सुख की कामना से पाप करते हैं, उनके पाप बढ़ते ही जाते हैं, जैसे ऋण लेनेवाले पर ऋण बढ़ता ही जाता है। ७. अणुबद्धमपस्संता पच्चुप्पण्णगवेसका।
ते पच्छा दुक्खमच्छंति गलुच्छिन्ना झसा जहा।। (इसि० १५ : १६)
जो केवल वर्तमान सुख की ही गवेषणा करनेवाले हैं और उससे अनुबद्ध फल को नहीं देखते, वे बाद में उसी प्रकार से दुःख पाते हैं जैसे गले में काँटे से बिंधी हुई मछली।
८. आताकडाण कम्माणं आता भुंजति जं फलं। - तम्हा आतस्स अट्ठाए पावमादाय वज्जए।। (इसि० १५ : १७)
आत्मा द्वारा किए हुए कर्मों का फल आत्मा ही भोगती है। अतः आत्मा के हित के लिए मनुष्य पाप का संचय करना छोड़ दे। ६. जे इमं पावकं कम्मं व कुज्जा ण कारवे।
देवा वि तं णमंसंति धितिमं दित्ततेजस्सं ।। (इसि० ३६ : १)
जो पुरुष पाप कर्म को नहीं करता है और दूसरों से भी नहीं करवाता है, उस धृतिमान दीप्त तेजस्वी पुरुष को देवता भी नमस्कार करते हैं। १०. जे गरे कुव्वती पावं अंधकारं महं करे।
अणवज्जं पंडिते किच्चा आदिच्चे व पभासती।। (इसि० ३६ : २)
जो मानव पाप कर्म करता है, वह महा अन्धकार को फैलाता है, जबकि पंडित पुरुष अनवद्य-पाप-रहित कर्म करता हुआ सूर्य की भाँति प्रकाशित होता है। ११. सिया पावं सई कुज्जा ण तं कुज्जा पुणो पुणो।
णाणि कम्मं च णं कुज्जा साधु कम्मं वियाणिया।। (इसि० ३६ : ३)
पाप का प्रसंग उपस्थित हो और पाप हो जाय तो साधक उस पाप को पुनःपुनः न करे। ज्ञानी श्रेष्ठ कर्मों को पहचानकर पाप-कर्म न करे।