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________________ (: १६ :) पाप-विरति १. पाप १. सीहं जहा खुद्दमिगा चरंता दूरे चरंती परिसंकमाणा। एवं तु मेहावि समिक्ख धम्मं दूरेण पावं परिवज्जएज्जा ।। - (सू० १,१० : २०) जैसे अटवी में विचरण करते हुए हिरणादि क्षुद्र प्राणी संशंकित रहते हुए सिंह को दूर ही से टालकर विचरते हैं, वैसे ही मेधावी पुरुष धर्म की समीक्षा कर पाप को दूर ही से छोड़ दे। २. पाणाइवायमलियं चोरिक्कं मेहुणं दवियमुच्छं। कोहं माणं मायं लोभं पिज्जं तहा दोसं ।। कलह अभक्खाणं पेसुन्नं रइ अरइ समाउत्तं । परपरिवायं मायमोसं मिच्छत्तसल्लं च।। . (१) प्राणातिपात (हिंसा). (२) झूठ, (३) चोरी, (४) मैथुन, (५) द्रव्यमूर्छा (परिग्रह), (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (६) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान-दोषारोपण, (१४) चुगली, (१५) असंयम में रति (सुख), संयम में अरति (असुख), (१६) परपरिवाद-निन्दा, (१७) माया-मृषा-कपट-पूर्ण मिथ्या और (१८) मिथ्यादर्शन-शल्य-ये अठारह पाप हैं। ३. जे पुमं कुरुते पावं ण तस्सऽप्पा धुवं पिओ। अप्पणा हि कडं कम्मं अप्पणा चेव भुज्जती।। (उ० ४५ : ३) जो पुरुष पाप करता है, उसे निश्चयतः अपनी आत्मा प्रिय नहीं है, क्योंकि आत्मा के द्वारा कृत कर्मों का फल आत्मा स्वयं ही भोगती है। ४. धावंतं सरसं नीरं सच्छं दाढिं सिंगिणं। दोसभीरु विवज्जेंति पापमेवं विवज्जए।। (इसि० ४५ : १२) स्वच्छ मधुर जलं की ओर दौड़ते हुए डाढ़ और सींगवाले पशुओं का चोट से डरने वाले व्यक्ति विवर्जन करते हैं, वैसे ही दोष-भीरु व्यक्ति पाप का दूर से ही वर्जन करे।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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