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________________ १५. समाधि १२१ २५. सव्वे कसाय मोत्तुं गारव-मय-राय-दोस-वामोहं। लोयववहारविरदो अप्पा झाएइ झाणत्थो।। (मो० पा० २७) ध्यान में बैठे हुए पुरुष को सब कषायों को तथा गौरव, मद, राग, द्वेष और व्यामोह को छोड़कर तथा लोक-व्यवहार से विरत होकर आत्मा का ध्यान करना चाहिए। २६. वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण । जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स।। (नि० सा० १२२) जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग कर वीतराग भाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसके परम समाधि होती है। २७. संजमणियमतवेण द धम्मज्झाणेण सक्कझाणेण। जो झायइ अप्पाणं परससमाही हवे तस्स।। (नि० सा० १२३) . जो संयम, नियम और तप से संयुक्त हो, धर्म और शुक्ल ध्यान के द्वारा आत्मा का ध्यान करता है, उसके परम-समाधि होती है। ५. निष्पत्ति १. तवं चिमं संजमजोगयं च सज्झायजोगं च सया अहिट्ठए। सूरे व सेणाए समत्तमा उहे अलमप्पणो होइ अलं परेसिं ।। (द०८ : ६१) जो तप, संयम-योग और स्वाध्याय-योग में प्रवृत्त रहता है, वह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में उसी प्रकार समर्थ होता है जिस प्रकार सेना से घिर जाने पर आयुधों से सुसज्जित वीर। २. सज्झायसज्झाणरयस्स ताइणो अपावभावस्स तवे रयस्स। विसुज्झई जं सि मलं पुरेकडं समीरियं रुप्पमलं व जोइणा।। (द० ८ : ६२) स्वाध्याय और सद्ध्यान में लीन, त्राता, निष्पाप मनवाले और तप में रत साधक का पूर्व संचित मल उसी प्रकार विशुद्ध होता है जिस प्रकार अग्नि द्धारा तपाये हुए सोने का मल। ३. से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए सुएण जुत्ते. अममे अकिंचणे। विरायई कम्मघणम्मि अवगए कसिणग्मापुडावगमे व चंदिमा ।। (द० ८ : ६३)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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